समय

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समय के साथ चलते-चलते,

प्रवाह के साथ बहते-बहते,

कभी डूबकर, कभी तैरते,

कभी उनींदे, कभी सजग मन,

नापना समय को याद रहा,

पर उसे जानना भूल गया।

 

याद रहे क्षण, प्रहर और पल,

खगोल पिंड गति याद रही,

परंतु यह है क्या, क्यौं हमे मिला,

कभी इसकी चर्चा हुई नहीं।

 

आदि हीन लगता अनंत-सा,

अखण्डित, अक्षुण्ण और निरंतर,

पर ज्ञात नहीं यह चलता हमसे,

या सारी सृष्टि है इस पर निर्भर?

 

है श्रोत कहीं जो इसका उद्गम?

बीत गया तो गया कहाँ यह ?

यह चलता है या हम चलते ?

या दोनो ही हैं भ्रम के प्रत्यय ?

 

या अंतहीन यह किसी वलय-सा,

चिरंतन, काल चक्र आवर्ती?

तो क्या हम बस इस गति के हैं इन्धन,

अभिशापित, अर्थहीन, क्षणव्यापी?

 

नाप तौल की बात करूँ तो,

है क्यौं इतना स्थिति सापेक्ष यह?

कभी रुका-रुका सा लगता,

और कभी विषमगति, वक्र, ह्रासमय।

 

प्रश्न बहुत हैं जिन्हे विज्ञान समझे,

पर मेरी एक भोली जिज्ञासा,

मैं समय के गोद पड़ा हूँ,

या है समय मुट्ठी से पल-पल रिसता-सा?

 

अनादि, अनंत, अखंडित, शाश्वत,

अप्रमेय, सर्वग्राही, सर्वत्र विद्यमान ।

समदर्शी, समस्पर्षी, सुलभ सबको एक समान,

हे देवतुल्य, चिरसखा समय, शाश्वत प्रणाम।

शाश्वत प्रणाम ।

 

 

मन घर भी है, मन आंगन भी

दीवार, छत, द्वार, दहलीज,

मन घर भी है, मन आंगन भी,

उन्मुक्त गगन का सपना भी है,

और उन सपनों का बंधन भी ।

.

पग के नीचे सौम्य धरातल,

ऊपर स्वच्छंद उन्मुक्त गगन,

कैलाश, कुरुक्षेत्र, वैतरणी,

तप, हवन, य़ज्ञ और चंदन भी ।

.

स्मित हास और अट्टहास भी,

कभी संदेश, कभी संवाद,

एक साथ सब मन के अंदर,

अश्रु, हास और क्रंदन भी ।

.

अमूर्त, अस्फुट, बीज भाव के,

जब भी उगें, संरक्षण उनका,

बचा-बचा कर अतिरेकों से,

करता पालन-पोषण, सिंचन भी ।

.

जलें, बुझें असंख्य भाव पर,

जड़ता कभी स्वीकार्य नहीं,

विपरीत सही पर भिन्न मतों का,

विच्छेदन और विश्लेषण भी ।

.

सूक्ष्म संवेदना, गहन अनुभूति,

दुर्लभ अलौकिकता का रोमांच,

इस प्रांगण सब संग क्रीड़ारत,

युद्ध, पलायन, विचरण भी ।

.

संतोष यहीं, संताप यहीं पर,

हर विद्रूप, विपर्यय का घर,

सुंदरता का निर्माण यहीं हो,

यहीं कुटिलता का नर्तन भी ।

.

बंधुत्व भाव, सहयोग सखावत,

मूल्यों पर जीवन का उत्सर्ग,

क्षणिक आवेश में सर्वस्व स्वाहा,

और शून्य-अनंत का मंथन भी ।

.

स्वयं ही बनते, टूटते बुदबुद,

और समगति प्रवाह की धीर नदी,

अनियंत्रित गर्जन, नाद प्रलय का,

और निस्सहाय चित्त का स्तवन भी ।

.

आश्चर्य नहीं कि इस गह्वर से,

छल, क्षद्म, घात भी जनमे हैं,

रूप उकेरने के लिये पटल पर,

आवश्यक प्रतिरूप का अंकन भी ।

.

यह मूल्य भी नव निर्माण का,

सदैव स्वीकारे यह नि:संकोच,

घाटी से होकर ही प्रशस्त,

मार्ग शिखर के आरोहन की ।

.

ऋणी ऋणात्मक भावों का

कि सत्य उजागर है सम्मुख,

तम के घर्षण से प्रकाश कर,

आलोकित पथ उन्नयन की ।

आनंद और अस्तित्व

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अधमुंदी आँखों से भोर की पहली किरण को निहारने में,

नये दिन की खुशी को मन में उतारने में,

सुबह उठ कर दरवाजा खोलने में,

अपने से नया कुछ कहने बोलने में,

जो समय जाता है,

मुझसे हो कर जाता है,

पूरी तरह मेरा बन पाता है ।

बाकी समय तो हर बार,

मेरे ऊपर से गुजरता है,

रीढ़ को पत्थरों की तरह रौंदते हुए,

आँखों में बिजली की तरह कौंधते हुए,

मुझमें आगे सफर के लिये ईंधन भरता है ।

मानता हूँ कि निश्चय ही मुझे जीवन में आगे करता है ।

चुनने का नहीं चिंतन का विषय है ।

एक आनंद और एक अस्तित्व से जुड़ा समय है ।

.

अपने मन की व्यथा के दिखने के पहले,

अपने संघर्ष की कथा लिखने के पहले,

आँखें जब जाती हैं ठहर,

रात में टिमटिमाते तारों की नटखट आँखमिचौली पर,

बादलों के हर पल बनते बिगड़े घर,

हवाओं में झूमते पेड़-पौधे करते जीवन का मनुहार,

सब की अपनी कहानी, सब के अपने श्रृंगार ।

प्रकृति के इस वरदान को निहारने में,

इस जीवित सुंदरता को अंगीकारने में,

जो समय गुजरता है,

मेरे चित्त का अंश बन मुझमें ठहरता है ।

बाकी मुझे रंगते हैं, रंगमंच के कलाकार की तरह,

कहते हैं, समर्थ बन, अर्जन कर,

नहीं जी सकते जीवन एक उधार की तरह ।

उनको भी प्रणाम, जीवन के आभार की तरह ।

जीवन समन्वय है, यहाँ दोनों का विलय है ।

एक आनंद और एक अस्तित्व से जुड़ा समय है ।

.

श्रम से लथपथ दिन के अवसान पर,

अपने अस्त्र-शस्त्र को थोड़ी देर के लिये अलग कर,

अपने लिये ढूँढने चलता हूँ खुशियाँ,

लगती है मुझे अपनी कर्जदार यह दुनिया,

तभी अचानक जो कोई आ के मिलता है,

गले लगाता है,

अपनी कहानी सुनाता है,

मुझमें सहसा वांछित होने का भाव जगाता है,

और मेरी सूखी आँखों में नमी भर जाता है,

उसकी मुस्कुराहट मैं अपनी खुशी पा लेता हूँ,

और अपनी खोज को विश्राम दे देता हूँ ।

अपनी खुशी की खोज की शुरुआत से लेकर,

इस विराम के बीच का समय,

मेरे मानव होने की परिभाषा है,

पूरी करता मेरी पहली अभिलाषा है ।

बाकी मुझे व्यवहार के गणित सिखाते,

जीवन की गणना में पटु बनाते,

कला हैं, कौशल हैं ।

उन्हें अपना नहीं भी कहूँ तो, कोई विवाद नहीं,

उचित हैं, निर्मल हैं ।

त्याग भी, संग्रह भी, रहस्य है, विस्मय है ।

एक आनंद और एक अस्तित्व से जुड़ा समय है ।

.

हर चमकते तारे को तोड़ लाने की ललक में बढ़ते हाथ,

नहीं जान पाते, सफर में किस-किस का छूटा साथ,

न जाने कितने रणो को जीतने के बाद,

कितने ही प्रणो को हारने के बाद,

उभरा मन के पटल पर,

जीवन का एक अर्थ,

लेना एक प्रवृत्ति है,

और देना एक सामर्थ्य ।

समूह से, समाज से,

सृष्टि से, प्रकृति से,

भूत से, वर्तमान से,

आदि से और इति से,

सदा कुछ न कुछ लेने वाला,

क्या दे सकता है,

कृतज्ञता के सिवाय?

ललक में हाथ के उठने से,

कृतज्ञता के भाव के जगने तक,

जो समय गुजरता है,

मेरे आभारों का खजाना है ।

बाकी दिनचर्या हैं,

बहुत ही उपयोगी ऐसा मैं ने जाना है ।

सामान्य से ही विशिष्ट का होता अभ्युदय है ।

एक आनंद और एक अस्तित्व से जुड़ा समय है ।

.

जीवन हर पल है,

बहता ही रहता, तरल है,

सारी उलझनों के बावजूद,

मन के अवगुंठनों से सरल है ।

पर कुछ जो इसे उत्कर्ष भरता है,

धन्यता देता है, हर्ष भरता है,

अपने अंतर्मन से बिना पूर्वाग्रह के बातें करना,

दूसरों के सुख-दुख को अपने से आगे रखना,

चारों ओर बिखरी सुंदरता का अध्ययन, आस्वादन,

सृष्टि के रचनाकार का,

इस जीवन के लिये आभार पूर्ण नमन,

जीवन को उस बिंदु तक ले जाते हैं,

जहाँ आनंद और होना एक हो जाते हैं ।

ये वह पल हैं जहाँ मन और प्राण का होता परस्पर विलय है ।

एक आनंद और एक अस्तित्व से जुड़ा समय है ।

गर्व तो होता होगा

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प्रकृति, पुरुष,

शक्ति, संकल्प,

पृथ्वी, आकाश,

चेतना, पदार्थ;

उद्देश्य, समर्पण,

चेतना, स्पंदन,

परहित, स्वार्थ;

हे अज्ञेय, हे रचनाकार,

तुम जो भी हो,

या सब के सब,

मेरे जनक और जननी,

मेरी अस्थि, मज्जा और प्राण के निर्माता,

सृष्टि के नियंत्रक, सारे जगत के विधाता,

तेरे पास तो विकल्प रहे होंगे,

फिर तुमने मुझे क्यों बनाया,

जैसा मैं अपने आपको पाता हूँ?

क्यों दिये ऐसे अंत: करण और आवरण,

जिनमें उलझकर मैं रह जाता हूँ ।

.

तुमने मुझे इतना दुर्बल क्यों बनाया,

जिसका जीवन है संभव,

तुम्हारे विस्तार की इतनी छोटी परिधि में,

कि मुझे अपना होना,

तेरी रचना कम,

एक संभावनाओं की दुर्घटना अधिक लगता है,

और मन में अनायास अवांछित होने का भाव जगता है ।

.

तुमने मेरे मन को इतना असहाय क्यों बनाया,

कि मुझे सदा एक अवलंब चाहिये,

समूह की सुरक्षा और किसी का संग चाहिये,

क्यों बनाया इतने संशयों से भरा,

अपने ही प्रश्नों के पंक में पड़ा,

कि हृदय और मस्तिष्क एक दूसरे से भ्रमित हो जाते हैं,

अपने पर ही सहजता से विश्वास नहीं कर पाते हैं ।

.

परिणाम यह कि जीवन का अर्थ संकुचित हो जाता है,

सब कुछ निरंतरता को बचाये रखने पर सीमित हो जाता है ।

आकांक्षा छूट जाती है,

ललक छूट जाती है,

रंग छूट जाते हैं,

महक छूट जाती है,

जो बचा रहता है,

बस प्राण से लिपटी चेतना,

और कुछ नहीं कर पाने की वेदना ।

.

फिर जीवन के क्षेत्र में,

प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष,

आरम्भ हो जाती है एक स्पर्धा,

और अधिक बल के संचय की,

सुरक्षा के आश्वासन के संग्रह की ।

कहने को तो कहते इसे पराक्रम है,

पर वास्तव में होता है लघुता का आभास,

जो कौंधता रहता है मन में,

जब भी करता हूँ उन्नयन के प्रयास,

और उस के ऊपर विफलताओं का तिरस्कार,

जो बेध देते हैं उन कवचों के भी आर-पार,

जो हमें मिले हैं विरासत में,

तुम्हारी थाती कह कर,

पर वह हमें आघातों से नहीं बचाता,

मात्र हमारी पीड़ा को चिरजीवी बनाता है ।

.

तुमने मुझे इतना अकुशल क्यों बनाया,

कि अपनी गति से, अपने भार से,

अपनी दक्षता से, अपने आकार से,

सदा अपूर्ण-से लगते अपने विचार से,

उचित-अनुचित के बीच जूझते अनगढ़ व्यवहार से,

सृष्टि में अपनी जगह ढूँढते अपनी याचना के अंधकार से,

धमनियों अनियंत्रित रक्त के संचार से,

सदैव मिला मुझे संकोच, अवरोध और अर्थहीनता,

मात्र लघुता को बोध फिर भी सह लेता,

पर यह तो थी,  

अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाती साक्षात अपूर्णता ।

.

यहीं समाप्त नहीं हुई तेरी माया,

यह कैसा छल कि तुमने इस मरु में भी,

जिज्ञासा के बीज बोये,

कल्पना के उर्वरक दे,

स्वप्निल नयनों के जल से सिंच-सींच कर,

आकांक्षाओं का नया एक संसार बसाया ।

जैसे एक अकिंचन को,

अलकापुरी की झलक दिखला कर,

कदाचित तुमने अपना मन बहलाया ।

.

एक और मन की व्यथा कहूँ,

तुम मुझे छोड़ गये यहाँ,

और अब मिलते भी नहीं,

पुकारता हूँ तो बस मुस्कुराते हो,

कुछ कहते नहीं,

अस्फुट-सा कुछ फुसफुसाते हो,

जब भी कुछ पूछना चाहता हूँ तुझसे,

मुझे निपट अकेला छोड़ कर,

किसी न किसी छल से,

अपने होने का विश्वास दिला, बहलाते हो ।

.

अंतिम प्रश्न,

सच कहो,

तुम मेरी दुर्बलता से अधिक दुखी हो,

या इस बात से कि मैं अपने को,

और सबल नहीं बना पाया?

सच बताना जब ऐसे प्रयासों में,

जब मैं अपनी सीमाओं को लाँघता हूँ,

और तोड़ डालता हूँ वह सारे नियम,

जो तुम्हारे नाम पर मुझे बताये गये हैं,

तो तुम्हें खुशी नहीं होती क्या?

सदा की तरह,

तुमसे इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं आता,

पर तुम्हारा मौन है मुझे तंद्रा से सहला कर जगाता,

तो लगता है,

 कि मैं अब तुम्हें समझने लगा हूँ,

नींद से जगने लगा हूँ ।

.

अब जो मेरा चित्त जगा है,

तो मुझे विश्वास होने लगा है,

कि तुम व्यथित होते हो,

देख अपनी इस रचना को,

आचारों और विचारों के,

प्रतीकों और व्यवहारों के घेरों में घिरे हुए,

और लगभग स्वेच्छा से,

लीकों पर गोल-गोल चलते हुए ।

ऐसे में कई बार,

निपट सहजता में,

अनायास जो आंसू मेरी आँखों में आ जाया करते थे,

जिन्हें मैं समझ नहीं पाया था,

सच बतलाना, तेरे ही थे ना?

.

तो अब जो मैं तुम्हें चुनौती देता

कुछ कह जाता हूँ,

स्वयम् को सम्हालता नहीं,

अतिरेकों में बह जाता हूँ,

जिज्ञासा को तुम्हारे अस्तित्व की सीमा तक ले जाता हूँ,

कल्पनाओं में एक समानांतर सृष्टि बनाता हूँ,

जानना चाहता हूँ वह सारे रहस्य जिससे तुमने संसार बनाया,

और वह भी जिससे तुमने अपना अस्तित्व पाया,

तो तुम्हें प्रसन्नता होती है ना ?

भले ही सुख-दुख से परे हो तुम,

अपनी रचना की इस सफलता पर तुम्हें,

हर्ष तो होता होगा?

तुमने जो अपना एक अंश दिया था मानव को,

इस तथ्य पर गर्व तो होता होगा?

जैसे हमारे होते हैं देवों के पर्व,

तुम्हारा भी मानव पर्व तो होता होगा?

समय निहारता रहा मुझे

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अपना समर मैं जूझ रहा था,

सरल जीवन हो अबूझ रहा था,

हर दुविधा में कातर हो गहा तुझे,

और समय निहारता रहा मुझे ।

.

कभी आश्चर्यचकित नयन से,

कभी ऊबे, थके-से मन से,

कभी निष्पक्ष दर्शक बन के,

पर सदैव ही बड़े जतन से ,

जान न पाया क्यों करता वह ऐसा,

मन ही मन विचारता रहा तुझे ।

और समय निहारता रहा मुझे ।

.

मैं ने समय को जुड़ते देखा,

सीधे चलते, मुड़ते देखा,

कभी-कभी श्रम से लथपथ,

और अगले पल फिर उड़ते देखा,

क्यों समय की गति है मायावी?

विकल हो पुकारता रहा तुझे ।

और समय निहारता रहा मुझे ।

.

समय मुझसे होकर बीता,

या मैं समय में होकर बीता,

जब भी बैठा करने आकलन,

दर्शन हारा और संशय जीता ।

हर भ्रम में, बालक अबोध-सा,

बस मानता, स्वीकारता रहा तुझे ।

और समय निहारता रहा मुझे ।

.

अनंत सृष्टि का एक सूक्ष्म अंग मैं,

व्यापक काल का क्षणिक तरंग मैं,

जैसे कोई अस्तित्वहीन स्पंदन,

अर्थ तभी, जब सब के संग मैं,

सह-जीवन मुझको प्रिय है, किंतु,

‘क्या उद्देश्य?’, पुकारता रहा तुझे ।

और समय निहारता रहा मुझे ।

.

एक दूसरे को देख रहे थे,

सहसा हम एक हो गये थे,

अब मेरा समय मुझमें सन्निहित,

जीवन के अब अर्थ नये थे,

उलझे सूत्र अब सुलझ रहे थे,

कृतज्ञ मैं विचारता रहा तुझे ।

और समय निहारता रहा मुझे ।

.

एक समय, जो मुझमें जनमा,

पला, बढा, जीवन बन पनपा,

मेरे संग हो जायेगा विलुप्त जो,

वह मेरा, और मैं अंश प्रवाह का,

अब अस्तित्व नहीं था प्रश्न चिन्ह,

तेरे संकेतों में तारता रहा तुझे ।

और समय निहारता रहा मुझे ।

.

समय निर्पेक्ष, अनादि, अशेष,

सूक्ष्म मैं इसका एक अंग विशेष,

एक वहिर्जगत का विस्तार अनंत,

एक अथाह अंतर्मन का अंत:प्रदेश,

अंतर के आलोक में भ्रम टूट गये,

पुलकित मन, सारथी कहा तुझे ।

और समय निहारता रहा मुझे ।

उद्विग्न मन

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जीवन के सागर में डूबते-उतराते,

मन उगती रही एक ही इच्छा,

कितना सुंदर होता जीवन, यदि तैर पाते ।

प्रश्न जीवन की रक्षा का था,

नहीं था कुछ भी दूर का दिखता,

बस यहीं तक थी सोच की परिधि,

प्राप्त हो चाहे यह जिस विधि ।

.

जिजीविषा में शक्ति अपार,

मन केंद्रित, अंग-अंग सक्रिय,

तैरने का स्वप्न हुआ साकार,

अरे, पर यह क्या?

न किसी का आभार,

न अपनी क्षमता पर गर्व का विचार,

आगे कुछ अलग ही हो गया,

इस प्राप्ति का सारा आकर्षण खो गया,

तैरना इतना सहज लगने लगा,

कि अर्थहीन-सा हो गया ।

.

असंगत लगने लगा कि जीने के क्रम में,

करनी पड़े व्यय सारी ऊर्जा,

मात्र तैरने के श्रम में,

कुछ पल तो हों,

विश्रांति के आनंद में समाने को,

और चेतना से अठखेलियाँ कर पाने को ।

क्यों न ऐसा सम्भव हो,

ऐसी एक युक्ति का उद्भव हो,

कि सागर पर घर हो,

जिसमें बिना श्रम तैर पाने का वर हो ।

.

संग-संग बहते, उपलाते,

शाखाओं से शुरू किया,

फिर कुछ समय बीता और मेरे पास थी नौका ।

सुरक्षा की शांति,

चित्त निर्द्वंद्व और सजग,

जल के ऊपर, पर जल से अलग,

तैरता-उपलाता,

लहरों के हिचकोले खाता,

जीवन था बढता जाता,

पर न दिशा पर, न गति पर कोई नियंत्रण,

अनायास ही खिन्न हो उठा मन ।

.

चेतना घनीभूत हुई,

अनुभव सजाये,

भुजाओं ने सृजन किया,

और पतवार बन आये ।

गति पायी, दिशा पायी,

एक यथार्थता मन में भर आयी,

एक ठहराव आया,

सार्थक होने का मन में भाव आया,

क्षितिज पर रंग भरने लगे,

आँखों में सपने भर आये,

पतवार ने होने के नये अर्थ दिखाये ।

.

नयी ऊर्जा, नयी दृष्टि,

रहस्य-रोमांच से भरी पड़ी सृष्टि,

क्षितिज के पार का संसार,

आमंत्रण देने लगा बारम्बार,

पर मन अब और भी उद्विग्न हो चला,

अज्ञात की जिज्ञासा से भरने लगा,

प्रयोजन और उद्देश्य का अनुसंधान करने लगा,

आनंद की परिभाषा सहसा छलने लगी,

सहजता करवटें बदलने लगी,

नया है सब कुछ, पर यह क्या भला है ?

जीवन ने यह सब दे कर किया धन्य या छला है ?

मैं जीवन में पलता रहा हूँ, या जीवन मुझमें पला है ?

सपने

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सपने पूरे होते हैं,

शायद हजारों में एक के,

कोई करे शिकायत या शुक्रिया,

नहीं चलता पता,

और समय बीत जाता है देखते-देखते ।

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सपने यदि सब पूरे हो जाते,

तो निश्चय सपने नहीं कहलाते,

फिर ये बंद पलकों में नहीं उगते,

खुली आँखों में बेचैनी बन बस नहीं जाते ।

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अधूरे सपने भी सपने ही होते हैं,

टूटे सपने भी अपनी कहानी नहीं खोते हैं

जब जीने कोई बहाना नहीं मिलता,

खयालों का कोई खजाना नहीं मिलता,

मन में नयी सम्भावना के बीज बोते हैं ।

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सपने स्पंदन देते हैं, तरंग देते हैं,

एकरस जिन्दगी में अनगिनत रंग देते है,

सपने गति देते हैं और गति को दिशा देते हैं,

चारों तरफ पसरी उदासीनता में जीजिविषा देते हैं ।

मन को देह की सीमाओं से बढ़ कर प्राण देते हैं,

तर्क और शास्त्रों से भी सूक्ष्म ज्ञान देते हैं,

और कई बार अप्रत्याशित भूमिका निभाते हैं,

अर्थहीनता में जीवन का उद्येश्य बन जाते हैं ।

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सपने कभी निराश नहीं करते,

हमेशा जोड़ते हैं, ह्रास नहीं करते,

पुराने होकर भी पुरातनता पर विश्वास नहीं करते,

चिर नवीन होते हैं,

नहीं किसी के अधीन होते हैं,

हर किसी के हजारों सपनों में,

एक तो जरूर पूरा होता है,

कि वह जब चाहे सपने देख सकता है,

कुछ देने का वह दम्भ नहीं भरते,

कभी किसी का सपने देखने का अधिकार नहीं हरते ।

तेरा प्रकाश भी चाहिये        

 

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जो किया काफी नहीं, अब कुछ नये प्रयास भी चाहिये,

सूरज जरा मद्धिम है आज, इसे तेरा प्रकाश भी चाहिये

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कहती नहीं पूरी कहानी, फकत ताकत तुम्हारी बाहों की,

चेहरे पर झलकने के लिये, मन में विश्वास भी चाहिये ।

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आँखों के खुलने से पहले, एक झोंका छू कर कह गयी,

बहुत हुआ दुहराना, होना हर कुछ दिन खास भी चाहिये ।

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दूर तक नहीं दिखा कोई संग चलने वाला तो मन ने कहा,

एक नयी ऊर्जा के लिये, कभी होना बेआस भी चाहिये ।

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दुनियाँ को बदलने की जिद है खूब वाजिव अपनी जगह,

दूसरों के आँसू पी ले, दिल में एक ऐसी प्यास भी चाहिये ।

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गम की इंतहा क्या खूब उतर आती है हमारे चेहरों पर,

उदास ना कर दे फूलों को, मन इतना ही उदास भी चाहिये ।

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महज ढूँढने की नहीं, खुशी गढ़ते रहने की चीज है यारों,

चाहे जैसे भी जगायें, मन में खिलता हुलास भी चाहिये ।

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और थोड़ी कोशिश हो जरूरी अक्सर सच ऐसा ही होता है,

पर चाहना गलत है कि थोड़ा कम ऊँचा आकाश भी चाहिये ।

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खूबसूरती एक की दूसरे से जुड़ती है, कभी टकराती नहीं

हरी दूब काफी नहीं, नजरों को अमलतास भी चाहिये ।

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एक ही तरफ हो तो अपनी ही करवट भी चुभने लगती है,

पीड़ा की करुणा सही, स्वच्छंद मन का विलास भी चाहिये ।

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थोड़ा ढीला अपने आपको छोड़ भी दिया कर भला होगा,

कभी-कभी बनफूलों-सा, होता कुछ अनायास भी चाहिये ।

उत्सव

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जीवन हर रंग में उत्सव है ।

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रचना में अभिजात है,

रूप में हर क्षण अभिनव है ।

पीड़ा में जननी है,

भाव में सदैव उद्भव है ।

प्रलय में भी अमर्त्य है,

असम्भव प्रतीत, परंतु संभव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

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चरित्र में अप्रतिम चेष्टा,

कर्तव्य में एकाग्र निष्ठा,

संस्कार में शुचिता प्रत्यक्ष,

प्रेम में साक्षात पराकाष्ठा ।

हर दिशा से मूर्तिमान सौष्ठव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

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विक्षुब्ध करता अनंत विस्तार,

प्रकाश से अधिक अंधकार,

पर अपनी ज्योति जलाने का,

अवसर देता बारम्बार ।

परीक्षा है सतत, नहीं पराभव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

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जितनी बाधाएँ, उतने ही बल,

हारने की पीड़ा, जीतने के छल,

कितने ही कुटिल प्रतिघात,

और उतने ही परोपकार निर्मल ।

यहाँ उन्माद है तो वहाँ नीरव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

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अपेक्षा कि हर रंग प्रगाढ़ हो,

मधुर-मदिर स्थायी स्वाद हो,

चेतना बना रहे समरस,

शेष नहीं कोई प्रमाद हो ।

यह अभाव शाश्वत अनुभव है ?

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

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ज्ञान, कि सब कुछ नश्वर है,

यह आतंक भी बहुत सुन्दर है,

जगती इससे अबूझ जिज्ञासा,

क्या है निश्चित और अमर है ?

सतत शोध का अमिट वैभव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

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प्राप्त हुआ तो संघर्ष है,

जी लिया तो उत्कर्ष है,

गहनतम वेदना में भी,

इसमें देवत्व का स्पर्श है ।

एक क्षण मोहिनी, दूसरे ताण्डव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

सम्हालते-सम्हालते

जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते,

बहुत दूर निकल आया,

मुड़ के देखा तो बीते पल झिलमिला रहे थे,

हल्के-हल्के मुस्कुरा रहे थे,

जैसे अभी भी चल रहे हों मेरे संग ।

कुछ गुनगुना रहे थे,

ध्वनि स्पष्ट नहीं थी,

पर मुझे छू रही थी,

उनसे उठती तरंग ।

मन निर्णय नहीं कर पाता,

कि इन बंधनों को तोड़ कर निकलना,

सही गति है?

इनसे लगाव के मादक भाव आभार हैं,

या निराधार आसक्ति है?

ऐसे और भी कई जिज्ञासाएँ रहते हैं मुझको सालते ।

जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।

.

जो पार किये पड़ाव हैं,

उनमें बसे जितने धूप छाँव हैं,

करते हैं परिभाषित मेरे अब तक के जीवन को,

पर उन्हें भी खूब पता है,

कि वे मात्र राह हैं, गंतव्य नहीं,

और अर्थहीन है कहना कि उनमें क्या गलत, क्या सही,

कितना कुछ ढल जाता है,

दिये गये साँचे में खुद को ढालते-ढालते ।

जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।

.

सपने जो अब तक आँखों में आये हैं,

सपने जो मन में बैठे हैं, विश्वास के जाये हैं,

कभी आपस में उलझते नहीं,

बहुत अलग-अलग हैं,

चुपचाप जलते रहते हैं, कभी बुझते नहीं,

कोई विवशता नहीं कि उनमें से कुछ को चुनूँ,

या उन सब की कहानियाँ सुनूँ,

जीवन का हिस्सा बन जायेंगे सारे,

यूँ ही आँखों में पालते-पालते ।

जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।

.

बीते हुए को अनुभवों से तौलना,

बंद किये दरवाजों को बार-बार खोलना,

सम्बंधों को प्रगाढता से आँकना,

आने वाले कल की ओर समय के विवर से झाँकना,

कभी-कभी जीवन के अर्थपूर्ण होने की अनुभूति देते हैं,

और बाकी सारे समय में लगता है,

सारी सृष्टि कह रही है:

जी, बस जी,

यात्रा ही जीवन है,

बाकी सब छलना है,

सत्य बस चलना है,

मत पाल फिजूल के मुगालते ।

जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।

करुणा

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ज्ञान, विवेक, साधना, वंदन,

देते नहीं चैतन्य, स्पंदन,

मन सूखा, मरुभूमि पड़ा था,

हो अर्थहीन पाषाण खड़ा था,

तुमने एक नया संसार दिया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया

.

करुणा, तुमसे दूरी-सी थी,

‘क्यों’ की बीच दीवार खड़ी थी,

चित्त तृषित था और विकल था,

अर्थहीन लगता जगत सकल था,

तू ने छू कर दुविधा पार किया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

.

ज्ञान का अपना तेज-ताप,

तर्क का सम्मोहक विलाप,

कारण के मायावी गह्वर,

सदैव प्रश्न, शून्य थे उत्तर,

सहज एक तुमने आधार दिया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

.

पौरुष भी था कुलिश कठोर,

मदमाता और संघनित घोर,

देने से अधिक था हर लेता,

उद्देश्यपूर्ण पर नहीं प्रणेता,

लक्ष्य में रस का संचार किया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

.

संधान निर्मल आनंद चित्त का,

आराध्य सत्य हो और सुन्दरता,

जब मात्र इन्हीं को चुन लिया,

अभेद्य एक आवरण बुन लिया,

तुमने इस चक्रव्यूह के पार किया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

.

तृणदल पर तुहिन के कण,

छूने से पैरों में कम्पन,

अकस्मात सृष्टि जाग्रत लगी,

हृदय व्यापक संवेदना जगी,

एक स्पर्श ने उपकार किया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

.

व्यग्र नयन ने नभ को छोड़,

देखे जीवन को प्रत्यक्ष, विभोर,

जुड़ने और पाने की भाषा,

अद्भुत, नवीन जीवन परिभाषा,

मन से मन का अभिसार किया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।