समय

pexels-photo-2613407.jpeg
Photo by sergio souza on Pexels.com

 

समय के साथ चलते-चलते,

प्रवाह के साथ बहते-बहते,

कभी डूबकर, कभी तैरते,

कभी उनींदे, कभी सजग मन,

नापना समय को याद रहा,

पर उसे जानना भूल गया।

 

याद रहे क्षण, प्रहर और पल,

खगोल पिंड गति याद रही,

परंतु यह है क्या, क्यौं हमे मिला,

कभी इसकी चर्चा हुई नहीं।

 

आदि हीन लगता अनंत-सा,

अखण्डित, अक्षुण्ण और निरंतर,

पर ज्ञात नहीं यह चलता हमसे,

या सारी सृष्टि है इस पर निर्भर?

 

है श्रोत कहीं जो इसका उद्गम?

बीत गया तो गया कहाँ यह ?

यह चलता है या हम चलते ?

या दोनो ही हैं भ्रम के प्रत्यय ?

 

या अंतहीन यह किसी वलय-सा,

चिरंतन, काल चक्र आवर्ती?

तो क्या हम बस इस गति के हैं इन्धन,

अभिशापित, अर्थहीन, क्षणव्यापी?

 

नाप तौल की बात करूँ तो,

है क्यौं इतना स्थिति सापेक्ष यह?

कभी रुका-रुका सा लगता,

और कभी विषमगति, वक्र, ह्रासमय।

 

प्रश्न बहुत हैं जिन्हे विज्ञान समझे,

पर मेरी एक भोली जिज्ञासा,

मैं समय के गोद पड़ा हूँ,

या है समय मुट्ठी से पल-पल रिसता-सा?

 

अनादि, अनंत, अखंडित, शाश्वत,

अप्रमेय, सर्वग्राही, सर्वत्र विद्यमान ।

समदर्शी, समस्पर्षी, सुलभ सबको एक समान,

हे देवतुल्य, चिरसखा समय, शाश्वत प्रणाम।

शाश्वत प्रणाम ।

 

 

उद्विग्न मन

Photo by GEORGE DESIPRIS on Pexels.com

जीवन के सागर में डूबते-उतराते,

मन उगती रही एक ही इच्छा,

कितना सुंदर होता जीवन, यदि तैर पाते ।

प्रश्न जीवन की रक्षा का था,

नहीं था कुछ भी दूर का दिखता,

बस यहीं तक थी सोच की परिधि,

प्राप्त हो चाहे यह जिस विधि ।

.

जिजीविषा में शक्ति अपार,

मन केंद्रित, अंग-अंग सक्रिय,

तैरने का स्वप्न हुआ साकार,

अरे, पर यह क्या?

न किसी का आभार,

न अपनी क्षमता पर गर्व का विचार,

आगे कुछ अलग ही हो गया,

इस प्राप्ति का सारा आकर्षण खो गया,

तैरना इतना सहज लगने लगा,

कि अर्थहीन-सा हो गया ।

.

असंगत लगने लगा कि जीने के क्रम में,

करनी पड़े व्यय सारी ऊर्जा,

मात्र तैरने के श्रम में,

कुछ पल तो हों,

विश्रांति के आनंद में समाने को,

और चेतना से अठखेलियाँ कर पाने को ।

क्यों न ऐसा सम्भव हो,

ऐसी एक युक्ति का उद्भव हो,

कि सागर पर घर हो,

जिसमें बिना श्रम तैर पाने का वर हो ।

.

संग-संग बहते, उपलाते,

शाखाओं से शुरू किया,

फिर कुछ समय बीता और मेरे पास थी नौका ।

सुरक्षा की शांति,

चित्त निर्द्वंद्व और सजग,

जल के ऊपर, पर जल से अलग,

तैरता-उपलाता,

लहरों के हिचकोले खाता,

जीवन था बढता जाता,

पर न दिशा पर, न गति पर कोई नियंत्रण,

अनायास ही खिन्न हो उठा मन ।

.

चेतना घनीभूत हुई,

अनुभव सजाये,

भुजाओं ने सृजन किया,

और पतवार बन आये ।

गति पायी, दिशा पायी,

एक यथार्थता मन में भर आयी,

एक ठहराव आया,

सार्थक होने का मन में भाव आया,

क्षितिज पर रंग भरने लगे,

आँखों में सपने भर आये,

पतवार ने होने के नये अर्थ दिखाये ।

.

नयी ऊर्जा, नयी दृष्टि,

रहस्य-रोमांच से भरी पड़ी सृष्टि,

क्षितिज के पार का संसार,

आमंत्रण देने लगा बारम्बार,

पर मन अब और भी उद्विग्न हो चला,

अज्ञात की जिज्ञासा से भरने लगा,

प्रयोजन और उद्देश्य का अनुसंधान करने लगा,

आनंद की परिभाषा सहसा छलने लगी,

सहजता करवटें बदलने लगी,

नया है सब कुछ, पर यह क्या भला है ?

जीवन ने यह सब दे कर किया धन्य या छला है ?

मैं जीवन में पलता रहा हूँ, या जीवन मुझमें पला है ?

सपने

Photo by Dom J on Pexels.com

सपने पूरे होते हैं,

शायद हजारों में एक के,

कोई करे शिकायत या शुक्रिया,

नहीं चलता पता,

और समय बीत जाता है देखते-देखते ।

.

सपने यदि सब पूरे हो जाते,

तो निश्चय सपने नहीं कहलाते,

फिर ये बंद पलकों में नहीं उगते,

खुली आँखों में बेचैनी बन बस नहीं जाते ।

.

अधूरे सपने भी सपने ही होते हैं,

टूटे सपने भी अपनी कहानी नहीं खोते हैं

जब जीने कोई बहाना नहीं मिलता,

खयालों का कोई खजाना नहीं मिलता,

मन में नयी सम्भावना के बीज बोते हैं ।

.

सपने स्पंदन देते हैं, तरंग देते हैं,

एकरस जिन्दगी में अनगिनत रंग देते है,

सपने गति देते हैं और गति को दिशा देते हैं,

चारों तरफ पसरी उदासीनता में जीजिविषा देते हैं ।

मन को देह की सीमाओं से बढ़ कर प्राण देते हैं,

तर्क और शास्त्रों से भी सूक्ष्म ज्ञान देते हैं,

और कई बार अप्रत्याशित भूमिका निभाते हैं,

अर्थहीनता में जीवन का उद्येश्य बन जाते हैं ।

.

सपने कभी निराश नहीं करते,

हमेशा जोड़ते हैं, ह्रास नहीं करते,

पुराने होकर भी पुरातनता पर विश्वास नहीं करते,

चिर नवीन होते हैं,

नहीं किसी के अधीन होते हैं,

हर किसी के हजारों सपनों में,

एक तो जरूर पूरा होता है,

कि वह जब चाहे सपने देख सकता है,

कुछ देने का वह दम्भ नहीं भरते,

कभी किसी का सपने देखने का अधिकार नहीं हरते ।

तेरा प्रकाश भी चाहिये        

 

Photo by Tomas Anunziata on Pexels.com

जो किया काफी नहीं, अब कुछ नये प्रयास भी चाहिये,

सूरज जरा मद्धिम है आज, इसे तेरा प्रकाश भी चाहिये

.

कहती नहीं पूरी कहानी, फकत ताकत तुम्हारी बाहों की,

चेहरे पर झलकने के लिये, मन में विश्वास भी चाहिये ।

.

आँखों के खुलने से पहले, एक झोंका छू कर कह गयी,

बहुत हुआ दुहराना, होना हर कुछ दिन खास भी चाहिये ।

.

दूर तक नहीं दिखा कोई संग चलने वाला तो मन ने कहा,

एक नयी ऊर्जा के लिये, कभी होना बेआस भी चाहिये ।

.

दुनियाँ को बदलने की जिद है खूब वाजिव अपनी जगह,

दूसरों के आँसू पी ले, दिल में एक ऐसी प्यास भी चाहिये ।

.

गम की इंतहा क्या खूब उतर आती है हमारे चेहरों पर,

उदास ना कर दे फूलों को, मन इतना ही उदास भी चाहिये ।

.

महज ढूँढने की नहीं, खुशी गढ़ते रहने की चीज है यारों,

चाहे जैसे भी जगायें, मन में खिलता हुलास भी चाहिये ।

.

और थोड़ी कोशिश हो जरूरी अक्सर सच ऐसा ही होता है,

पर चाहना गलत है कि थोड़ा कम ऊँचा आकाश भी चाहिये ।

.

खूबसूरती एक की दूसरे से जुड़ती है, कभी टकराती नहीं

हरी दूब काफी नहीं, नजरों को अमलतास भी चाहिये ।

.

एक ही तरफ हो तो अपनी ही करवट भी चुभने लगती है,

पीड़ा की करुणा सही, स्वच्छंद मन का विलास भी चाहिये ।

.

थोड़ा ढीला अपने आपको छोड़ भी दिया कर भला होगा,

कभी-कभी बनफूलों-सा, होता कुछ अनायास भी चाहिये ।

उत्सव

Photo by Pixabay on Pexels.com

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

.

रचना में अभिजात है,

रूप में हर क्षण अभिनव है ।

पीड़ा में जननी है,

भाव में सदैव उद्भव है ।

प्रलय में भी अमर्त्य है,

असम्भव प्रतीत, परंतु संभव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

.

चरित्र में अप्रतिम चेष्टा,

कर्तव्य में एकाग्र निष्ठा,

संस्कार में शुचिता प्रत्यक्ष,

प्रेम में साक्षात पराकाष्ठा ।

हर दिशा से मूर्तिमान सौष्ठव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

.

विक्षुब्ध करता अनंत विस्तार,

प्रकाश से अधिक अंधकार,

पर अपनी ज्योति जलाने का,

अवसर देता बारम्बार ।

परीक्षा है सतत, नहीं पराभव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

.

जितनी बाधाएँ, उतने ही बल,

हारने की पीड़ा, जीतने के छल,

कितने ही कुटिल प्रतिघात,

और उतने ही परोपकार निर्मल ।

यहाँ उन्माद है तो वहाँ नीरव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

.

अपेक्षा कि हर रंग प्रगाढ़ हो,

मधुर-मदिर स्थायी स्वाद हो,

चेतना बना रहे समरस,

शेष नहीं कोई प्रमाद हो ।

यह अभाव शाश्वत अनुभव है ?

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

.

ज्ञान, कि सब कुछ नश्वर है,

यह आतंक भी बहुत सुन्दर है,

जगती इससे अबूझ जिज्ञासा,

क्या है निश्चित और अमर है ?

सतत शोध का अमिट वैभव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

.

प्राप्त हुआ तो संघर्ष है,

जी लिया तो उत्कर्ष है,

गहनतम वेदना में भी,

इसमें देवत्व का स्पर्श है ।

एक क्षण मोहिनी, दूसरे ताण्डव है ।

जीवन हर रंग में उत्सव है ।

सम्हालते-सम्हालते

जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते,

बहुत दूर निकल आया,

मुड़ के देखा तो बीते पल झिलमिला रहे थे,

हल्के-हल्के मुस्कुरा रहे थे,

जैसे अभी भी चल रहे हों मेरे संग ।

कुछ गुनगुना रहे थे,

ध्वनि स्पष्ट नहीं थी,

पर मुझे छू रही थी,

उनसे उठती तरंग ।

मन निर्णय नहीं कर पाता,

कि इन बंधनों को तोड़ कर निकलना,

सही गति है?

इनसे लगाव के मादक भाव आभार हैं,

या निराधार आसक्ति है?

ऐसे और भी कई जिज्ञासाएँ रहते हैं मुझको सालते ।

जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।

.

जो पार किये पड़ाव हैं,

उनमें बसे जितने धूप छाँव हैं,

करते हैं परिभाषित मेरे अब तक के जीवन को,

पर उन्हें भी खूब पता है,

कि वे मात्र राह हैं, गंतव्य नहीं,

और अर्थहीन है कहना कि उनमें क्या गलत, क्या सही,

कितना कुछ ढल जाता है,

दिये गये साँचे में खुद को ढालते-ढालते ।

जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।

.

सपने जो अब तक आँखों में आये हैं,

सपने जो मन में बैठे हैं, विश्वास के जाये हैं,

कभी आपस में उलझते नहीं,

बहुत अलग-अलग हैं,

चुपचाप जलते रहते हैं, कभी बुझते नहीं,

कोई विवशता नहीं कि उनमें से कुछ को चुनूँ,

या उन सब की कहानियाँ सुनूँ,

जीवन का हिस्सा बन जायेंगे सारे,

यूँ ही आँखों में पालते-पालते ।

जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।

.

बीते हुए को अनुभवों से तौलना,

बंद किये दरवाजों को बार-बार खोलना,

सम्बंधों को प्रगाढता से आँकना,

आने वाले कल की ओर समय के विवर से झाँकना,

कभी-कभी जीवन के अर्थपूर्ण होने की अनुभूति देते हैं,

और बाकी सारे समय में लगता है,

सारी सृष्टि कह रही है:

जी, बस जी,

यात्रा ही जीवन है,

बाकी सब छलना है,

सत्य बस चलना है,

मत पाल फिजूल के मुगालते ।

जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।

करुणा

Photo by Digital Buggu on Pexels.com

ज्ञान, विवेक, साधना, वंदन,

देते नहीं चैतन्य, स्पंदन,

मन सूखा, मरुभूमि पड़ा था,

हो अर्थहीन पाषाण खड़ा था,

तुमने एक नया संसार दिया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया

.

करुणा, तुमसे दूरी-सी थी,

‘क्यों’ की बीच दीवार खड़ी थी,

चित्त तृषित था और विकल था,

अर्थहीन लगता जगत सकल था,

तू ने छू कर दुविधा पार किया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

.

ज्ञान का अपना तेज-ताप,

तर्क का सम्मोहक विलाप,

कारण के मायावी गह्वर,

सदैव प्रश्न, शून्य थे उत्तर,

सहज एक तुमने आधार दिया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

.

पौरुष भी था कुलिश कठोर,

मदमाता और संघनित घोर,

देने से अधिक था हर लेता,

उद्देश्यपूर्ण पर नहीं प्रणेता,

लक्ष्य में रस का संचार किया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

.

संधान निर्मल आनंद चित्त का,

आराध्य सत्य हो और सुन्दरता,

जब मात्र इन्हीं को चुन लिया,

अभेद्य एक आवरण बुन लिया,

तुमने इस चक्रव्यूह के पार किया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

.

तृणदल पर तुहिन के कण,

छूने से पैरों में कम्पन,

अकस्मात सृष्टि जाग्रत लगी,

हृदय व्यापक संवेदना जगी,

एक स्पर्श ने उपकार किया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

.

व्यग्र नयन ने नभ को छोड़,

देखे जीवन को प्रत्यक्ष, विभोर,

जुड़ने और पाने की भाषा,

अद्भुत, नवीन जीवन परिभाषा,

मन से मन का अभिसार किया ।

तुम आये तो श्रृंगार किया ।

सच के संग

Photo by Eugene Golovesov on Pexels.com

अध्ययन से अर्जित ज्ञान से नहीं,

जीवन में मिले सम्मान से नहीं,

मन के अक्षुण्ण अभिमान से नहीं,

विधान के दिये हुए प्रमाण से नहीं;

अंतिम निर्णय में हम उतने ही भले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

संवेदना की गहन चेतना से नहीं,

दर्शन के सूक्ष्म विवेचना से नहीं,

दिव्य आलोक की संभावना से नहीं,

उत्तुंग शिखर पर पद स्थापना से नहीं;

अज्ञान तिमिर में उतने ही दीप जले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

बीते हुए पथ के वैभव से नहीं,

अर्जित किये हुए अनुभव से नहीं,

प्राप्त सारी निधियाँ दुर्लभ से नहीं,

साधे हर असम्भव-सम्भव से नहीं;    

सार्थकता के साँचे उतना ही ढले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

भुजाओं में निहित पुरुषार्थ से नहीं,

मन में बसे कुरुक्षेत्र के पार्थ से नहीं,

भ्रम से मुक्ति, या स्पष्ट अर्थ से नहीं,

परलोक के हेतु किये परमार्थ से नहीं;

प्रकाश के पुंज राह में उतने ही जले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

अन्वेषण के आह्लादों से नहीं,

चिंतन से नहीं, संवादों से नहीं,

त्याग से नहीं, आस्वादों से नहीं,

अर्जित हुए सारे साधुवादों से नहीं;

भाग्य के उतने ही आशीष फले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

जीवन सुरभित करते हर्ष भी भले,

सत्य और यथार्थ के स्पर्ष भी भले,

सारे पुरस्कार और संघर्ष भी भले,

चेतना व्यापक करते उत्कर्ष भी भले;

हम सार्थकता के रंग उतने ही ढले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

जीवन में अंतत: हम उतने ही भले हैं,

जितना हम सच के साथ चले हैं ।

दीया जलेगा

Photo by George Becker on Pexels.com

धूप का धीरे-धीरे कम होना,

उजाले का क्रमश: मध्यम होना,

गहराता मन का कोना-कोना;

थकी नसों में शीतलता जगती,

शामें हैं इतनी अच्छी लगती,

इसलिये कि तय है दीया जलेगा,

एक और उजाला साथ चलेगा ।

.

अंतरिक्ष के तारों-से झिलमिल,

माया रचे दीप अंधकार से मिल,

भयभीत नहीं, पलकें हों स्वप्निल;

स्वागत बाँह पसारे रात का,

निमंत्रण स्वीकार इस अज्ञात का,

इसलिये कि तय है दीया जलेगा,

अंधकार अब नहीं छलेगा ।

.

जो बाधाओं से जूझ प्राप्त हो,

साध चित्त के भय को, भ्रांति को,

जन्म देता उस चिर सामर्थ्य को;

प्रगट जिससे अंधकार में आशा,

विश्वास जीवन में हर पल बढता-सा, 

जब भी हमने कोई दीया बनाया,

जीवन को सत् की ओर बढाया ।

.

निविड़तम निशि में भी विश्वास पलेगा,

जो हमने बनाया वह दीया जलेगा ।

बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है

Photo by Lucas Pezeta on Pexels.com

मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है

,

कभी अपनी यात्रा के आरम्भ का अनुमान लगाने,

कभी बीते पथ को निहारने आत्मीय स्नेह से,

कभी फिर से जीने, बीते क्षण अतिरेक के,

पर अधिकतर अब तक के बीते समय का आभार जताने,

बीते की जटिलता से ही उभरती,

आगे की दिशा-रेखा है ।

 मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है ।

,

स्पष्ट है,

कि हर उत्कर्ष की यात्रा की भाँति,

इसमें भी बीते बिंदु लगते अभी से नीचे हैं,

प्रतीत होते,

आज के यथार्थ से आँखें मीचे हैं,

परंतु यही तो इस यात्रा का अर्थ है,

इतना सदा सत्य रहेगा,

कि आने वाला कल,

आज के लिये भी ऐसा ही कहेगा,

सच कहूँ तो मुझसे,

रहा नहीं किभी भी वर्तमान का सौंदर्य अनदेखा है।।

मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है ।

,

पैरों में चुभते शूलों की,

अपने निर्णय के भूलों की,

अपने हाथों हुए विनाश की,

पश्चाताप और गढने के हर प्रयास की,

हर हर्ष-वेदना मुझे स्वीकार है,

अतिशयोक्ति नहीं कि मुझे बेहद उनसे प्यार है,

वे जोड़ते मुझे हैं उस विधा से,

जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि का लेखा है ।

मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है ।

,

अभी तक आभास हो रहा है जिस आकर्षण का,

सहगामियों की परछाईयोँ से जुड़े स्नेह बंधन का,

जिनकी स्मृति अनायास ही धन्यता से भर देता है,

बीते के गौरव अनायास गौरवान्वित कर देता है,

शीतलता देने में सक्षम आज की हर व्यथा में,

सदा एक सरस अर्थ देता हर संघर्ष की कथा में ।

हर निराशा के पल इन्हीं स्मृतियों साँसों में भर देखा है ।

मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है ।

,

नियमों की परिधि से अलग हो कर,

संवेग के उत्प्लावन में खो कर,

पूर्णत: निष्काम हो,

शुचिता के बीज बो कर,

देख लिया, और पाया,

बाकी आभूषण हैं, तत्थ्य मात्र यात्रा है ।

यात्रा सार्थक तभी लगी ,

जब पूरी यात्रा से जुड़ कर देखा है ।

मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है ।