पूर्णता और पूर्णता की यात्रा

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पूर्णता के प्रयास में,

राह में मिलते आलोक बिंदु,

मात्र मरीचिका हैं,

या संभवत:,

दिशा के सही होने के आभास हैं?

पर यदा कदा मन में कौंधता,

चकाचौंध करता,

पूर्णता का विश्वास,

 प्राय: कुछ और नहीं है, छलना है?

कदाचित यही वह छद्म है,

जहाँ विवेक को सम्हलना है ।

.

जब प्रतीत होता सब कुछ सही,

 कहीं भी कोई कमी नहीं,

कोई ऐसी कहानी नहीं,

जो बच रही हो अनकही;

हम जड़ हो रहे होते है,

अपनी संवेदना खो रहे होते हैं ।

.

घुमावदार रास्तों से चलते हुए,

मोड़ आकर्षित नहीं करें,

सिर्फ तय किये हुए दूरी की चिंता हो,

मन में केवल उस पार का सवाल हो,

मोड़ों का होना आनंद नहीं,

प्रतीत होता व्यवधान हो,

रोमांच एक बेमतलब का खयाल हो;

जीवन जिया नहीं जा रहा होता,

गुजारा जा रहा होता है,

साँसें चलती है,

मन, जड़वत सोता है ।

.

अपनी पीड़ा विशाल लगे,

परपीड़ा की हृदय में अनुभूति न हो,

पर अपनी हर व्यथा के लिये,

सारी दुनियाँ को खड़ा कर रहे हों,

सवालों के घेरे में,

स्वयम् अपने दायित्व की प्रतीति न हो,

ऐसे में कब अचानक,

 जीवन के अवयव बदल जाते हैं,

मन के विचार ढल जाते हैं,

अपने हित से,

औरों के अनहित की इच्छा में,

और परोपकार की भावना परपीड़न में,

और इस बदलाव का हमें पता नहीं चलता ।

ऐसे में लड़खड़ाता कदम फिर नहीं सम्हलता ।

.

एकांत का सम्मोहन भी,

समूह के सकल बंधन भी,

निर्पेक्ष चिंतन के उत्तुंग शिखर,

समरसता का आस्वादन भी,

संग साथ के बंधन भी,

अस्तित्व  ज्ञान का अकेलापन भी,

जब एक साथ करें आकर्षित,

लगें जटिल, पर करें सम्मोहित,

नयी जिज्ञासाएँ जगती रहें हर पल,

पुरानी होती रहें तिरोहित,

जीवन सम्पूर्णता की ओर बढ रहा होता है,

सार्थकता के सोपान चढ रहा होता है ।

.

पूर्णता के प्रकाश की चकाचौंध से,

सहज है खुद को छलना,

पर जीवन है,

खुद को जला प्रकाश पाना,

और अपने ढूँढे रास्तों पर चलना ।

तुम्हारा होना, नहीं होना एक समान है

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मेरी समग्र चेतना,

एक साथ उत्प्लावित और स्तब्ध है,

कि तुम्हारा होना,

तुम्हारी अनुपस्थिति में भी उप्लब्ध है।

तुम्हारा मेरे संग होना,

या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,

मुझे लगता एक समान है,

मेरा तुम्हें एक बच्चे की भाँति जकड़े रहना

तुम्हारा मुझे सदा स्वच्छंद छोड़ देना,

इसका प्रमाण है ।

.

जब भी मैं ने अपनी धड़कन सुनी,

जब भी अपनी साँसों को महसूस किया,

जब भी बाहर से सिमट कर अपने अंदर जिया,

और तुम्हें प्रत्यक्ष नहीं पाया,

चौंका नहीं, निराश नहीं हुआ,

क्योंकि तुम वहाँ नहीं हो,

ऐसे विचार ने मुझे कभी नहीं छुआ ।

मेरा होना ही मुझे कहता है,

तू विद्यमान है ।

तुम्हारा मेरे संग होना,

या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,

मुझे लगता एक समान है ।

.

जब भी मैं,

प्राप्ति की अनुभूति से जाता हूँ भर,

छलकते रहते हैं मेरे संचित,

उछृंखल हो  कर,

या जब भी मेरे पूरे विस्तार में,

निपट शून्यता आती है उभर,

विश्रांति का आलस्य छाने लगता है मुझ पर,

दोनों ही स्थिति में,

एक-सा ही भाव समर्पण का,

मुझे हल्के से सहलाता है,

फिर पूछता है मुस्कुरा कर,

क्या तुम जानते हो,

तुझे मिला यह सब किस विधि का विधान है ?

तुम्हारा मेरे संग होना,

या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,

मुझे लगता एक समान है ।

.

अपने अस्तित्व के निरंतर आकलन में,

‘जो करना है’, के उद्यम में,

और ‘जो कर चुका हूँ’, के अध्ययन में,

एक प्रश्न उठता बार-बार, पग-पग पर,

करना और होना क्या हैं, युग्म, हैं अनंतर?

क्या एक दूसरे के आगे पीछे,

क्या आश्रित एक दूसरे पर?

देखूँ शुरू से अंत की ओर,

या अंत से निहारूँ आरंभ के छोर

जो होता है दृष्टिगत,

है जीवन, सम्पूर्ण, अक्षुण्ण, अक्षत,

इसमें कुछ भी विभाजित नहीं होता,

कुछ जीतने से कुछ पराजित नहीं होता,

कुछ जुड़ने से इसका आकार बड़ा नहीं होता,

कुछ घटने से लघुता का संकट खड़ा नहीं होता,

जो होता है, होता है,

जो नहीं होता, वह भी समग्र का एक अंश होता है।

इस जीवन के यायावर के लिये,

तुम्हारा प्रत्यक्ष नहीं होना भी,

मात्र एक होना है,

कदापि नहीं है तुम्हें खोना ।

शून्य और समग्र के बीच हर कुछ,

एक दूसरे से  जुड़ हुआ है पूर्णत:,

यही समेकितता प्रतीत होता वास्तविक ज्ञान है ।

तुम्हारा मेरे संग होना,

या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,

मुझे लगता एक समान है ।

यात्रा

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कोई भी यात्रा रहती अधूरी,

जब तक न कर ले पूरी,

अपने केन्द्र बिंदु के अंदर की,

और अपनी परिधि के बाहर की यात्रा,

जैसे अधूरे रहते हैं शब्द संयोजन के बिना,

और प्रयास किसी प्रयोजन के बिना।

.

अपनी परिधि पर आवर्तों में घूमना,

निश्चय ही अनिवार्य अंग है जीवन का,

पर धरातल से ऊपर उठने के संदर्भ में,

इसका कुछ अर्थ नहीं होता,

हर गति जो आवश्यक है,

उत्कर्ष में समर्थ नहीं होता।

.

जब तक पूर्वाग्रह से मुक्त मन में,

भव भय से हीन, उन्मुक्त क्षण में,

हृदय के किसी आंतरिक विन्यास से,

विवेक से अर्जित किसी बल के प्रयास से,

एक वांछित आवेग नहीं हो प्रयुक्त,

यद्यपि मुक्त,

गति नहीं जाती केंद्र बिंदु की ओर,

व्यक्ति रहता है यथास्थिति में ओतप्रोत,

सहज गति से विभोर।

.

और जब तक स्वप्नों का कोई अज्ञात संसार,

नहीं करता झंकृत मन के द्वार,

अभिनव की जिज्ञासा नहीं करती उद्विग्न,

आकांक्षाओं का संवेग नहीं ले जाता निर्विघ्न,

पार,

आंतरिक मोह के पाश के, संशय के,

परिवर्तन के विरुद्ध उठते हठ और भय के,

तो सहज वेग परिधि से,

बाहर कभी ले जा नहीं सकता,

हाँ, लीक पर चलने के आवर्तों को,

यात्रा भले रहे कोई कहता।

.

परिधि के बाहर की यात्रा,

हमारे अंदर बैठे चिर हठी बालक की जिज्ञासा,

और हमारे पूरे अस्तित्व को हर पल परिभाषित करते,

परिपक्व वयस्क की आकांक्षाओं,

की संयुक्त अभिव्यक्ति है,

भले ही इससे पारम्परिक प्रचलनों की,

असहमति है।

.

केन्द्रबिन्दु के अंदर की यात्रा,

समेटता है एक सूक्ष्म छिद्र में,

और ले जाता है सूक्ष्मता के पार,

जहाँ एक ओर हम होते हैं,

और दूसरी ओर पूरा संसार,

अपने विराट आकार में,

पूरे विस्तार में,

पूर्णत: स्पष्ट विवरण में,

अपने पूरे सौंदर्य में,

पर संवेदनाओं के हर क्षण नये संस्करण में।

वहाँ अपने प्रकाश भी स्वयम हम,

अपनी मीमांषा में सतत सक्षम,

अपना स्थान ढूँढते भी,

अपना स्थान करते परिभाषित,

हर दिशा में उन्मुक्त,

हर दशा में सुभाषित।

.

परिधि में घूमने को शापित,

ढूँढते हर पल अपने कवच में अपनी सुरक्षा,

सृष्टि के महाविन्यास में,

यंत्र का एक अर्थहीन अवयव होने से ऊपर,

हमारी उप्लब्धि हो सकती बस यही है,

धन्यता अंतत: इतनी ही सही है,

कि इन यात्राओं की उत्कंठा,

कितनी मन में जग पायी है,

इन उत्कर्षों की आकांक्षा,

हम में समायी है।

आगंतुक

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आगंतुक, दो-चार पहर,

कभी आ रुक मेरे भी घर,

मैं भी निहारूँ कुछ अभिनव,

नयनों में लूँ सपने भर।

कुछ देर ठहर, कुछ देर ठहर।

.

तेरी दृष्टि के छूने से,

आये अमूर्त संसार उभर,

तुझे छू लूँ बस एक बार,

हो हर भाव स्पंदित, मुखर।

जब तक उठे यह उद्वेग ठहर।

.

पदचाप नहीं, संकेत नहीं,

न कोई तरंग, न कोई स्वर,

जैसे आंगन धूप उतरती,

आकर तू मेरे द्वार उतर।

चुपचाप सही, कुछ देर ठहर।

.

तेरे होने के प्रकाश से,

पुलकित हर अणु हो-हो कर,

सुरभित हो और दीप्त रहें,

कम-से-कम मेरे जीवन भर।

कुछ ऐसा हो जो तू जाये ठहर।

.

प्रश्न न कोई पूछूँ मैं,

न आशा कि तुम दो उत्तर,

संबंध मात्र इतना कि तुम,

तुम आ जाओगे मेरे घर।

अज्ञेय, निराकार, पर तनिक ठहर।

.

मेरी शून्यता, मेरी नीरवता,

नहीं चाहता तुम दो भर,

तेरे स्पर्श से हो ऐसा कि,

हों उनके अर्थ प्रकट मुझ पर।

बस तब तक मेरे घर तू ठहर।

.

न अभिलाषाओं का विलास,

न यश, कीर्ति, न कोई लक्ष्य अपर,

पर्याप्त तुम्हारा परिचय हो,

थक जाऊँ यदि मैं बीच समर।

पराजय में भी, मेरे संग ठहर।

.

आगंतुक, बहुत हैं प्रिय जन तेरे,

है ज्ञात तुझे क्या मेरी डगर?

यदि नहीं, तो इतने से धन्य,

कि कभी-कभी देख लेना इधर।

क्षण भर तेरी दृष्टि जाये ठहर।

.

क्षीण न हो विश्वास मेरा,

कि आओगे एक दिन चल कर,

संभावना मुझे रखते जीवित,

कल्पना, गति, स्पंदन बन कर।

घर नहीं रुचिकर, तो मन में ठहर।

आगंतुक, यह भी तेरा ही घर।

अब तक के सम्मोहन से

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अपने ही ओढे बंधन से,

मृगतृष्णा के अभिनंदन से,

यदि मुक्त हो बाहर निकले,

अब तक के सम्मोहन से,

.

‘हो चुके’ के बंधन से छूटें,

रचना की ऊर्जा का ठौर मिले,

अति परिचय से उबरें तो,

क्या जानें कोई और मिले?

.

क्षीण हो चले जिज्ञासा जब,

कौतूहल हो कुंठित अनायास,

होने लगे मद्धिम आकांक्षाएँ,

मन छोड़ने लगे नये प्रयास,

.

इच्छा नहीं पुलकित होने की,

संवेदना बचे मुखरित होने से,

सपने भी अलसाने लगे और,

पुरुषार्थ दिखने लगे बौने-से,

.

समय वही है जबकि चेतना,

झकझोरे और तंद्रा तोड़े,

खींच-खींच कर प्रश्नचिन्ह,

उद्देश्य और लक्ष्य नया जोड़े।

.

इन-से ही पल, ऐसे ही क्षण,

होकर निर्पेक्ष परखते हमको,

अपने नियमों पर हम चलते,

या इच्छा वश में रखते हमको?

.

विधि ने निर्माण में हमारे,

जो अंश देवत्व का जोड़ा था,

हो तटस्थ है पूछता रहता,

क्या यह प्रयोग भी अधूरा-सा,

.

बाधा सकल हमारे अपने,

यदि डिगें न मौलिक चिंतन से,

है कौन जो रोक है सकता,

परम गति से, आरोहन से,

यदि मुक्त हो बाहर निकले,

हम अब तक के सम्मोहन से।

चांद को उगते देखा

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मैंने क्षितिज पर,

एक साथ,

कई चांदों को उगते देखा।

वे बारी-बारी से,

मेरे पास आ रहे थे,

कुछ तो था,

जिसे आजमा रहे थे।

मुझे भी नहीं भाती,

मेरी उदासीनता,

उन्हे भी नहीं भायी।

कोई दुराव नहीं था,

पर बात जिद पर बन आयी।

तुम वहीं ठहरो,

पास मैं आऊंगा,

मैं चुनूंगा तम्हे,

और मैं चिन्हित करूंगा,

इस पल की दिशा रेखा।

मैंने क्षितिज पर,

एक साथ,

कई चांदों को उगते देखा।

.

पास गया,

और पूछा पहले चांद से मैंने,

कौन हो,

क्यों मेरी ओर आ रहे,

क्या है जो तुम,

कहने जा रहे?

क्यों तुम इतने सारे हो?

मतिभ्रम है यह मेरा,

चांद ही हो या,

चांद-से दिखते तारे हो।

.

चांद ही हूँ,

तुम्हारे मन में उगता हूँ,

डूबता भी तुम्हारे ही मन,

तुम्हारी इच्छा पर ढलता हूँ,

ईर्ष्या, द्वेष, स्नेह, आसक्ति,

श्रद्धा, कृतज्ञता और विरक्ति,

जो रूप देते हो,

ले कर चलता हूँ।

अनगिनत रूप मेरे,

तेरे ही मन की,

संभावनाओं के आकार हैं,

जिस घड़ी तू जैसा चुनता,

मन के तंतु से जो भी बुनता,

हो जाता तुम्हारा चांद,

उसी प्रकार है।

.

मैं धटता हूँ, बढता हूँ,

पर सदैव तुम्हारे संग चलता हूँ,

चुन कर मुझे,

उस क्षण तुम मुझ-सा हो जाते हो,

पर मैं तुझमें ही पलता हूँ।

तारे  धटते-बढते नहीं,

स्थिर हैं,

तेरे संग चलते नहीं,

पर हर अमावस में,

तुम्हे राह दिखाते प्रकाश होते हैं,

मैं तुम्हारी भावना हूँ,

जीवन का स्पंदन हूँ,

संवेदना हूँ,

तारे तुम्हारी चेतना के श्रोत,

तुम्हारे विश्वास होते हैं।

.

जाना मैंने,

दृष्टि मेरी, चित्त भी मेरा,

संवेदना मेरी, विश्वास भी मेरा,

किन्तु सत्य कि जन्म- मरण,

और सृष्टि के दिये,

संभावनाओं के आवरण,

स्वीकार करें हम,

कदाचित हैं प्रारब्ध,

नियति निर्धारित विधि का लेखा।

तारों को नमन किया,

पर जीवन के अह्लाद को जाना,

अपने को सार्थक माना,

जब मैंने क्षितिज पर,

एक साथ,

कई चांदों को उगते देखा।

अधिकार तुम्हारा

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शांत, सुरम्य, जीवंत, मनोरम,

कामना सहज जीवन की हर क्षण,

बसते सदैव हृदय में सभी के,

हों अंतर्चेतना से दूर या पास।

मार्ग अज्ञात, दिशा अनिश्चित,

पर सबके मन विश्वास।

.

प्रयाण है तो गति भी होगी,

घर्षण, ताप और क्षति भी होगी,

श्रम से निर्माण कल की समृद्धि,

और विधा संघर्ष की जनमी होगी।

पर भाव इसका हर व्यक्ति के मन में,

अलग-अलग भावार्थ ले जनमे।

.

भय, चिंता और दाह कहीं पर,

जीवन का निर्वाह कहीं पर,

सृजन का उल्लास, ओज तो,

कुछ नया पाने की चाह कहीं पर।

.

किसी को लगता प्रतिशोध विधि का,

यह जीवन बीते ऋण को चुकाते,

किसी को खेल जुआ का चंचल,

कौतुक हर क्षण दाँव लगाते।

.

कहीं भाव बंधन के देता,

मन की सहजता को हर लेता।

तो कहीं जोड़ता एक अवलम्ब से,

शून्यता में उद्देश्य भर देता।

.

अवसर दहन का उत्पन्न ताप से,

संभावना संघर्ष से विनाश के,

निश्चय ही कुछ मानव मन में,

जगते और पाले जाते प्रयास से।

.

ऋण-धन सब अपने मन है,

दुविधा और द्वन्द्व सनातन है,

किस ओर झुके मन अंतत: तेरा,

शोध है, गणणा है, चिंतन है।

.

निर्णय अपना आप कर सको,

है दैवीय उपहार तुम्हारा,

सत्-असत् का मूल्यांकन है,

ईश्वर का दिया अधिकार तुम्हारा।

यही है देवत्व का अंश तुझमें,

दिशा का निर्धारण हरबार तुम्हारा।

वह तुम ही थे

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दुनियाँ के बदहवास रेले में,

बमुश्किल चलने की जगह पाते, मेले में,

कभी इशारों की सुनते हुए,

कभी रोशनी, कभी अंधेरे को चुनते हुए,

एक साथ कई रास्तों पर तुम चले।

.

कई बार राहों को चुनना था,

कई बार अपने आप,

बनते गये थे उनके सिलसिले।

चलना अधिक जरूरी लगता था,

मुड़ कर देखने की फुर्सत नहीं थी,

और थोड़ी राहों में रोशनी की कमी थी।

पता नहीं तुझे मालूम भी है या नहीं,

तुम हमेशा खास रहे, भीड़ में जुड़ने से पहले।

इनमें से कई रास्तों पर तुम बिल्कुल अकेले चले।

.

अगले पल का पता नहीं था,

विश्वास जीवन पर था डगमगाता,

टंगे हुए अदृश्य  धागे से,

झूलते हवा के थपेड़ों से,

जीवन के सारे अर्थ खोकर भी,

नितांत अकेले हो कर भी,

वह तुम्हीं थे जिसने चलना छोड़ा नहीं।

भय में और संशय में भी,

अकेले आगे बढने से मुँह नही मोड़ा।

.

संभावनाओं के हर तार जब टूट गये,

आशाएँ ही नहीं, आशाओं के अर्थ भी पीछे छूट गये,

किसी दिशा से नहीं आता था,

किसी प्रश्न का उत्तर,

मन में बस द्रोह था,

टूट रहा हर मोह था,

और निरर्थकता से लिपटी थी चेतना आठों पहर।

ऐसे में फिर क्या हुआ,

तू याद कर, सब याद कर,

था रुका नहीं तू अवसाद कर,

अस्थि जला उस अंतहीन अंधकार में,

अंतर्मन की सुनता, पथ के भीषण हाहाकार में,

खींच निकाल अंधकूपों से स्वयम को,

उस अशनि-पात के पारावार से,

जो अकेला चलता रहा, वह तुम ही थे,

जिसने कुछ नया रचा, वह तुम ही थे।

.

खुशी की खोज में चलते-चलते,

सुख और भोग को पा कर कहते,

यही तो है, मत लौट यहाँ से,

जीवन छोटा, व्यर्थ न कर,

जो भी तेरे सामर्थ्य में कर।

शक्ति झोंक औंधे तर्कों में,

उपहास तुम्हारा हर पल करते।

ऐसे में हो निपट अकेले,

दंश अपने स्वाभिमान पर झेले,

लहू लुहान अस्तित्व को लेकर,

हाथ धरे निज विश्वास पताका,

जो चला अकेला, वह तुम ही थे,

तुम भूल चले, पर तुम ही थे।

.

जिन राहों पर भीड़ छोड़ कर,

शीश अपने विश्वास की धार धर,

अंतर्मन में छुपे भय से उबर,

बाहर के आतंक से पार उतर,

जब भी तुम चले अकेले,

उन्नत भाल, उन्मेष लक्ष्य ले,

मैं भी तेरे संग चल रहा था,

तुम मुझे स्थापित कर रहे थे,

एक दीप प्रगति पथ जल रहा था।

.

तुम कहते हो तुम मेरी छाया में पलते,

सच हो शायद,

पर निश्चय ही अपने अंत:करण में,

तुम मुझे जिलाये चलते।

तुमसे चाहे जितनी भी मेरी छवि महिमामंडित है,

तुम्हारे हृदय के आश्रय के बिना,

अपूर्ण है, खंडित है।

होने का सम्मान

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अस्त है तो उदय भी होगा,

निर्भयता है तो भय भी होगा,

हास-अश्रु, प्रतिशोध-क्षमा,

बंधन-मुक्ति, अभिमान-हीनता,

व्यर्थ और अर्थमय भी होगा,

जीवन है तो क्षय भी होगा।

.

एकाधिकार और भोग की लिप्सा,

मन में उठी अकारण हिंसा,

दबी चिंगारी कहीं सुलगती,

मन को अतिरेकों से भरती,

हैं दग्ध बिन्दु उस अनंत पथ के,

जिस पर अहर्निश हैं हम चलते।

.

इस संघर्ष में, इस जीवनयात्रा में,

कभी घटती कभी बढती मात्रा में,

ये अतिरेक आवेश हैं भरते,

दिशा निर्धारित भी हैं करते,

सहज तत्थ्य बस इतना अविचल,

दग्ध बिन्दु हैं अपने प्रतिफल।

.

निर्माण ऊर्जा चाहता निश्चित,

संघर्ष में दहन-ताप अपरिमित,

चेतना सहज दे सरल ज्ञान एक,

संताप नहीं विकास में बाधक,

जीवन नहीं हैं दग्ध बिन्दु ये,

मात्र इसके ये अवयव होते।

.

आशंका विश्वास को क्षीण ना करे,

आवेश विकास से हीन ना करे,

आशा उच्चतम लक्ष्य की हो पर,

संघर्ष, जब तक शेष हो समर,

हों अंतर्मन में पलते जो भी विपर्यय,

जीतें नित्य, हो नित्य ही अभ्युदय।

.

विसंगतियों के पार है जीवन,

ऋणात्मकता से सहज उन्नयन,

विविधता के अणुओं रचना कर,

सकल संशय से लड़, पार उतर,

संभावनाओं का निर्माण है जीवन,

होने का सम्मान है जीवन।

और समय था

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समय जो बीत जाता है,

ज्ञात नहीं, कहाँ जाता है,

पर उसके कदमों की आवाज,

और उसकी परछाई,

रह जाती हैं।

हमें तराशती है, बनाती है।

.

समय,

जो बीता जानने में, समझने में,

सीखने में,

खड़ा हो कर चलने में,

अबोध था,

इसीलिये निष्कलंक था,

बंधन के अर्थ समझता नहीं था,

इसलिये उन्मुक्त था,

परंतु,

अशक्त था,

इसलिये आश्रित हो पला,

बन रहा था,

इसलिये किसी साँचे में ढला।

साँचों को चुनने का वह वय नहीं था,

आह्लाद का था,

वह चिंता का समय नहीं था।

.

समय ने फिर करवट बदली,

किरणें थोड़ी तीखी हो चली,

आँखों में चिंगारी, 

और नसों का तनाव अच्छा लगता था।

सर पर बोझ भले ही था,

पैरों पर दवाब अच्छा लगता था।

सृजन और अर्जन के भाव,

जगने लगे थे,

मोह और सम्मोहन,

मधुर लगने लगे थे।

एक आवेश था, आवेग था,

मुग्धता थी, अनुराग था,

भोग था, उपयोग था,

मन चाहता संग्रह और संचय था।

नहीं वह रुक कर सोचने का समय था।

.

थोड़ा ठहरा,

क्षीण होता शीर्ष का रोमांच कुछ कहने लगा,

आगे बढते अब ढलान पर उतर रहा था,

आरोह जैसा मान कदमों में मगर कहाँ था।

पर आह,

समय का त्वरित प्रवाह,

न रोमांचित करता,

न आतंकित करता,

सम गति का आकर्षण,

ठहराव का आश्वासन,

लगने लगा,

जीवन के आधारभूत अर्थो को,

रेखांकित करता।

जो बीता, प्रिय था,

संग ही नयी भावनाओं का,

हो रहा अभ्युदय था,

अपवाद भी स्वीकार्य होने लगे थे,

अच्छे और बुरे का स्मृतिमें,

होने लगा विलय था।

कीर्ति, पद, बल के अर्थ,

बदलने लगे थे,

आकांक्षा, अभिमान, छल,

विदूषक-से लगने लगे थे।

सबका कुशल क्षेम अब अपना था,

ईर्ष्या की चिंगारी कहीं बुझ गयी थी,

सबके लिये सहज प्रेम अब अपना था।

लाभ-हानि नहीं आय-व्यय नहीं था,

बस मैं अपने साथ था, और समय था।