
सुदूर किसी हिम शिला पर बेसुध,
खोते हुए चेतना के अंतिम तंतु,
सामर्थ्य की सीमाओं का कर अतिक्रमण,
जो कदम अस्तित्व की रक्षा को
संघर्ष कर रहा होगा,
मनुज इतिहास का अध्याय एक
गढ रहा होगा।
कल के लिये करने संचित अंगारों को,
जूझते हुए दावानल की लपटों से,
जिस वीर ने झोंक दिया होगा,
सर्वस्व अनल के काल-ग्रास से लहरों में,
लायी होगी चिंगारी मृतप्राय प्राण से,
प्रणम्य पुरोधा,
प्रगति का पहला सोपान चढ रहा होगा।
मनुज इतिहास का अध्याय एक
गढ रहा होगा।
बढते कुटुम्ब, जीवन दुर्घर्ष,
भोजन के कण-कण को संघर्ष,
शूल क्षुधा के सहकर निज की,
किसी याचक को अपना भाग दिया होगा,
सहज करुण के सूत्र पिरोता,
मानवता की पहली परिभाषा पढ रहा होगा।
मनुज इतिहास का अध्याय एक
गढ रहा होगा।
तज बंधन सारे, रूढि पाश सब,
उत्ताल ज्वार में हो प्रविष्ट जब,
धर कर शीष मान्यता के कुठार पर
जिसने किया परिभाषित ईश्वर,
सार्थकता की संजीवनी भर कर,
एक जंतु मात्र-से मनुष्य के सर
अदृश्य मुकुट आत्मा का मढ रहा होगा।
मनुज इतिहास का अध्याय एक
गढ रहा होगा।