कमजोर शायद नजर भी है

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जब आईना झूठ बोलने लगे,

तो कमजोर शायद नजर भी है,

सच पर परदे की पाबंदियाँ,

सिर्फ उधर ही नहीं, इधर भी है।

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कहने को क्या नहीं कह लेते हम,

फिक्र बस अपने गुजर-बसर की है।

शिकायत हवाओं की जितनी कर लें,

कुछ तो नाजुक हमारे घर भी है।

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ढूँढते किस खुशी की राह हरदम,

क्यों आसान सफर की चाहत है,

मुश्किल सही, पर मंजिल पाने को,

एक पगडंडी की राह इधर भी है।

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साफगोई पसंद हैं हम सब,

सीधी बातों के मुरीद भी यारों,

बस सीधे साधे लोगों को अक्सर,

उलझाने का हममें हुनर भी है।

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इन कंधों पर बोझ उनका भी है,

दुनियाँ भर को समझाना चाहें पर,

अपने में मगन, लोग सुनते ही नहीं,

कहिये शराफत यह किधर की है।

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दिन जिसके लहू जलाते नहीं,

रातें थक के सोने को नहीं होती,

सुबह उनकी तो खाली होती ही,

शामें भी बस ऐसे ही गुजरती है।

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चलो आज ये ठान लेते हैं,

लेने से अधिक देंगें हम यारों,

फिर जो सुकून मिलता है,

उसकी तासीर ता-उम्र ठहरती है।

संध्या नहीं यह तो प्रभात है

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हँसने दो, मुस्कुराने दो,

बिन राग सही, कुछ गाने दो,

हर बीता पल याद आने दो,

खुद को रूठने, मनाने दो,

रोको मत कह जाने दो,

आज एक नयी शुरुआत है।

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संध्या नहीं यह तो प्रभात है।

एक अबोध-सा मन में प्यास है,

कुछ नये का हरदम प्रयास है,

अब दूर नहीं, बस आस पास है,

वह खुशी जिसकी तलाश है।

संशय नहीं, पूरा विश्वास है,

धैर्य माँगती हर अंधेरी रात है।

संध्या नहीं यह तो प्रभात है।

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उलझा जो था सुलझ रहा है,

खुली गाँठ, अब बैर कहाँ है,

कुछ दूर सही पर दीप जला है,

मन के अंदर शंख बजा है,

सार्थक सारे बीते क्षण यदि,

तू अविचल सदा अपने साथ है।

संध्या नहीं यह तो प्रभात है।

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कर्तव्य नहीं कंधों पर भारी,

दृग सम, दृढ पग बारी-बारी,

उठते, हो चेतना के आभारी,

जीता विश्वास, विमुखता हारी।

स्वयम् को ही सम्मोहित करती,

संवेदना यह कितनी अभिजात है।

संध्या नहीं यह तो प्रभात है।

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जीवन का कोई पर्याय नहीं है,

कोई अर्थहीन अध्याय नहीं है,

अप्रत्याशित, पर अन्याय नहीं है,

स्वयम अर्थ, अभिप्राय यही है।

घुले मिले संकाय सभी हैं,

स्वेद-अश्रु-हास का पारिजात है।

संध्या नहीं यह तो प्रभात है।

मन के संवाद

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अवचेतन में भी जगता है,

हर पल कुछ बुनता रहता है,

इसमें आसन्न पल के लिये स्नेह और अतीत की याद है,

शायद यही मन का अपने से संवाद है।

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यह सुनता सब कुछ है,

देखता भी, समझता भी है,

जानता है दुनियाँ से अपनी साझेदारी, मानता है सारे ऋण,

और निभाता हर सम्बंध बिना किसी प्रतिवाद है।

शायद यही मन का अपने से संवाद है।

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तन की पुकार भी सुनता है,

स्वजन की पुकार भी सुनता है,

कुछ लेता नहीं, जो दे सकता देने को सदैव तैय्यार है,

मात्र जीत ही नहीं, उसे स्वीकार हार का भी स्वाद है।

शायद यही मन का अपने से संवाद है।

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बाध्य नहीं करता, बस कहता है,

पूरी उपेक्षा भी चुपचाप सहता है,

हर दोष अपने ऊपर ले लेता चुपचाप,

और हर स्थिति में संग बिना किसी अपवाद है।

शायद यही मन का अपने से संवाद है।

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हमारी चिंतन में पलता है,

कभी छाया, कभी प्रतिबिम्ब बन छलता है,

हम कभी उपकार इसके मानते नहीं, पर इसके बिना,

जीने में न कोई उद्देश्य-अर्थ, ना हर्ष या अवसाद है।

शायद यही मन का अपने से संवाद है।

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बदले में क्या मांगता मन,

सहज आचरण, उन्मुक्त विचरण,

और हम देते उसे अवांछित नियम, अवरोध और बंधन,

चेतना उसी से, और उसे मिलता मात्र विवाद है?

शायद यही मन का अपने से संवाद है।

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उन्मुक्त रखो, विचरने दो मन को,

सीमाएँ ही तो हैं, उनका अतिक्रमण करने दो,

यही इतिहास का सच, सृष्टि की प्रगति का मूल है,

यह आगंतुक को आमंत्रण, बीते को साधुवाद है।

शायद यही मन का अपने से संवाद है।

खुशी

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खुशी बाहर कहीं बसती नहीं,

नहीं यह बिधि का लेखा,

जग पड़ती यूँ ही मन में,

कि किसी ने मुस्कुरा कर देखा।

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खुशी खिल उठी,

कि दर्द ने आज छुआ है नरमी से,

और मुँह मोड़ने से पहले,

मेरी आँखों में देखा किसी ने।

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खुशी, साँसोँ में फिर से याद आती,

भूली हुई कोई गंध,

सपनों में फिर से जुड़ते,

निहायत ही भूले बिसरे सम्बंध।

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खुशी, बेवजह साफ करना,

घर का कोई अंधेरा कोना,

एक दीया जलाना, और

बिछुड़े दोस्तों के लिये रोना।

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खुशी, खाली हाथ कोई जाये,

घर से तो बस इतना करना,

मुस्कुरा के उसे पास बिठाना,

और हँसते हुए बिदा करना।

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खुशी, बदहवास भीड़ में शामिल,

अगर कुछ और कर ना सकूँ,

किसी गमगीन को बुलाऊँ,

हाल पूछूँ और गले लगा लूँ।

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खुशी, रोशनी पल भर की,

चमक उठे चीरते बादल को,

तस्वीर याद रहे हरदम,

जैसे हर उलझन का हल हो।

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न कोई सदा, न नगमा कोई,

खामोशी खुद में हो भरी-भरी,

खुशी, ऐसे में ओस की एक बूंद,

गिरे और कह जाये बातें कई।

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खुशी,किसी रात पौ फटते ही,

किसीका एहसास दिल पे छा जाना,

आँखों का नम हो जाना बरबस,

सर का झुक कर, सजदे में आ जाना।

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खुशी, साँसों को महसूस करना,

दिल की आवाज सुनना खामोशी में,

इतना भी अपना होता है कुछ,

खोया रहना इस बात की मदहोशी में।

टिमटिमाते दीये

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दर्द जब कुछ बुझने लगता है,

जख्म पुराने पड़ पर जाते हैं,

बीते हादसों के नये मतलब,

सीने में उभरते नजर आते हैं।

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फिर समझ में आता है,

कि क्यों सदियों से कहा जाता है,

कि वक्त सबसे बड़ा मलहम,

सर पे हाथ रख बाप-सा सहलाता है।

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हादसों के नये मतलब,

खुद पर रहम करने से दूर करता है,

और अपना चेहरा एक साफ आईने में,

देखने को मजबूर करता है।

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बात बहुत दीगर-सी है,

फर्क, पर इससे बहुत बड़ा पड़ता है,

सच बेहतर दिखाई दे तो,

दिल का जहर कम असर करता है।

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अपनी शहादत का गुमान थोड़ा कम होता है,

औरों की सच्चाई नजर आने लगती है,

जिन वाकयों पर शक के बादल छाये थे,

उनमें छुपी अच्छाई नजर आने लगती है।

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थोड़ा और हल्का होकर,

दर्द जब आम-सा और गैर-रूमानी हो जाता है,

दर्द के पीछे छिपकर बैठा अपना चेहरा,

नहीं अब उतना मासूम नजर आता है।

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जख्मों पर कशीदाकारी,

और दर्द पर खूबसूरत नज्म लिखना,

बड़ा पुराना चलन है,

दर्द को बड़ दिखाना और दर्द से बड़ा दिखना।

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जख्म तुम्हारे हैं और दर्द भी तुम्हारा है,

उन्हें भी धूप और हवा चाहिये,

क्या कीमत जमाने से वसूलोगे उनकी,

बता पाओगे कि तम्हें क्या चाहिये।

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दरअसल ये कुछ निशान हैं,

जो जिन्दगी ने तेरे नाम किये हैं,

सम्हाल के रखो उन्हें,

ये तुम्हारी अंधेरी राह के टिमटिमाते दीये हैं।

मन तेरे मनुहार

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मन तुम मेरे चिर सखा,

मेरी चेतना प्रवाह की धार,

मेरी गति, बल, क्षमता के,

तुम एक मात्र आधार।

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साँझ सवेरे फिर जी उठता,

सुन मन तेरे मनुहार,

तन, मन की संचित हर ऊर्जा,

बस तेरे हैं उपकार।

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मेरी तुमसे बात हुई थी,

हम सब मिल कर बाँटेंगे,

पर मैं देता बस डंक प्रश्न के,

और तुम सारे उपचार।

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प्रशस्त रहें जनपथ सारे,

जन-जन प्रगति निर्बाध करें,

पर तेरी सँकड़ी गलियों में ही,

चित्त पाता विस्तार।

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जीवन के शांत सरोवर में,

जो लहर मनोरम उठते हैं,

तेरे छेड़े राग सभी हैं,

और सब तेरे उद्गार।

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जितने भी श्रृंगार किये,

जितना भी खुद को चाहा मैं,

झूठे लगे, मैं भूला उनको,

पर याद तेरा अभिसार।

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कोई कहानी यदि सुनाऊँ,

तुझसे ही माँगूँ हर शब्द,

गिनूँ कहाँ तक ऐसे तेरे,

हैं अनगिनत उधार।

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ऐसा अक्सर ही होता है,

सारी दुनियाँ बंद लगे,

बाँह पसारे हरदम मिलते,

खुले हुए तेरे द्वार।

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अर्थ ढूँढता हर प्रत्यक्ष में,

अनहद मेरी जिज्ञासा,

फिर भोले शिशु-सा सो जाता वह,

सब कुछ तुझ पर वार।

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सृष्टि के सारे रंग अनोखे,

सबके सब ललचाते हैं,

पर जहाँ मैं बसना चाहूँ,

है तेरा नील-श्याम संसार।

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मैं सबकुछ तुमसे ही लेता,

कह उनको अपना बाँट हूँ देता,

तुम मुस्काते देते जाते,

अद्भुत तुम सतत उदार।

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तुम मेरे या मैं हूँ तेरा,

मैं गणना करता रहता हूँ,

ईर्ष्या होती, जब तुमको देखूँ,

फिर भी कलुषहीन, निर्विकार।

पगडंडियों से होकर जायें

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पगडंडियों से घर लौटते हुए,

पत्तों की छुअन से,

काँटों की चुभन से,

एक परिचय जगने लगा,

और बहुत ही जल्दी,

वह वर्षों पुराना लगने लगा।

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थोड़ी काई थी, थोड़ी फिसलन थी,

पर कोई उकताहट नहीं,

ना ही कोई उलझन थी।

कोई समझा रहा था,

कि इस रास्ते,

समय अधिक,

पर मन बहुत ही ज्यादा लगेगा,

यदि लाभ-हानि की बात बिसार सको,

तो अपनापन बहुत ही ज्यादा लगेगा।

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मन को थोड़ी ढील देनी होगी,

तन से पसीना थोड़ा बहाना होगा,

इसके अलावा जादू का,

कोई मोल नहीं चुकाना होगा।

स्वाद धीरे-धीरे जुबान पर चढता जायेगा,

अंदर से उठती गंध सराबोर कर देगी,

बस कुछ देर के लिये कोई सवाल मत पूछना,

सरसता की छाया,

और समरसता की माया,

बरबस तुम्हे अपनी ओर कर लेगी।

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यादों के झूले में झूलना,

किरणों के संग लहराना,

और अनजानी खुशी से फूलना-इतराना,

यह सब तुम्हें हल्का कर देगा,

और तुम्हें वहाँ ले जायेगा,

जहाँ तुम हरदम जाना चाहते थे,

और नहीं जानते थे कि कहाँ से होकर,

गुजरते वहाँ के रास्ते थे।

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बस थोड़ी फुर्सत रखना,

और थोड़ी हिम्मत रखना,

और रखना अपने आप पर बहुत सारा यकीन,

क्योंकि इनके बिना,

शायद तुम्हें दिखे ही नहीं,

पगडंडियों का आमंत्रण,

बगल के पक्के रास्ते,

तुम्हारे ऊपर डाल दे अपना सम्मोहन,

और कर दें संवेदनाओं से विहीन।

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बस थोड़ा लाभ-हानि की गणना से दूर,

थोड़ी काई और फिसलन को कर मंजूर,

मन की गाँठों पर दे कर थोड़ी ढील,

फुर्सत के कुछेक लम्हे और आशाएँ भरपूर,

चलो सोते मन को जगायें।

एक बार फिर खुद से मिल आयें।

पगडंडियों से होकर जायें।

संतोष सृजन का

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हर जीवन यात्रा के जैसी,

है मेरी जीवन य़ात्रा भी,

अंश उस अनंत यात्रा का,

जो है प्रत्यक्ष पर मायावी।

इसमें धैर्य है, ठहराव है,

है उद्यम, और आपाधापी।

सर पर शीतल हाथ वरद,

तलवों तले जलती चिंगारी।

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हर प्रयास को झुठलाता लेकिन,

जीवन के अर्थ का अभाव है।

पर अंतत:, संतोष सृजन का,

जिजीविषा और सखा भाव है।

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वैर भी है, वैमनस्य भी,

जिज्ञासा, शोध, और प्रतिशोध है,

असीमित गति की इच्छा,

पर परिवर्तन का विरोध है।

सौन्दर्य, सत्य है प्रथम ईष्ट,

अनुरंजन पहली अभिलाषा,

संग ही छल और प्रतिघात भी,

चलती जैसे ज्योति और छाया।

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दिखे सरल पर बहुत जटिल इसमें,

भय और उत्कंठा का प्रभाव है।

पर अंतत:, संतोष सृजन का,

जिजीविषा और सखा भाव है।

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करता अनुभव प्रत्येक क्षण,

चेतना का सहज स्पंदन,

जुड़ा है जीवन सकल सृष्टि से,

अटूट श्रृंखला, अनबूझ बंधन।

पर, नहीं है सुसुप्त यह श्रृंगार,

इच्छा पहुँचती मन के द्वार,

ले आकांक्षाओं के तरंग,

ले नये नियम और नये विचार।

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इस अखण्ड द्वन्द्व का ताप,

देत जीवन को इसका स्वभाव है।

पर अंतत:, संतोष सृजन का,

जिजीविषा और सखा भाव है।

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ढूँढ नहीं, तू अर्थ सृजन कर,

सारे संकेतों का यही भाव है,

मूलत: जीवन संतोष सृजन का,

जिजीविषा और सखा भाव है।

बालक और मैं

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क्या तुम भी मेरे जैसे ही थे?

प्रश्न सुन कर चौंक उठा।

सम्मुख एक नन्हा-सा बालक,

कुछ जाना कुछ अनजाना-सा,

कौतूहल से सराबोर था,

देख रहा वह मेरी ओर था।

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कौतूहल से उपजा कौतूहल,

जिज्ञासा में भी सम्हल-सम्हल,

मैं चलके उसके पास गया,

झुका, उसके समकक्ष हुआ,

जितना सरल मैं हो सकता था,

होकर, मुस्काया और पूछ लिया,

क्यों लगा तुम्हे मैं उत्तर दूंगा?

पर चलो मैं तुमसे बात करूंगा।

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क्या रात अंधेरे डर लगता था?

परछाईयाँ थीं हवा में दिखती,

रंग रूप बदलती, चलती फिरती,

पैर जमते और कोसों लम्बा,

घर तक का सफर लगता था?

क्या तुमको भी डर लगता था?

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कहना चाहा, बिल्कुल सच है,

कैसे सवाल ये गढ रहे हो,

तुम कैसे मुझको बिन जाने,

मेरा बचपन पढ रहे हो?

पर हिचका,

अपने कवच मैं खोल न पाया,

लगा सम्हालने अपने कद को,

उतना सच मैं बोल न पाया।

बच्चे ने जाने क्या समझा,

भायी शायद मेरी चुप्पी,

और फिर से वह लगा पूछने,

सुबह-सुबह की नींद का टूटना,

क्या तुमको भी लगता सबसे बड़ा दुख था?

समय की सीमा भूल खेलना,

नहीं क्या साक्षात सुख सम्मुख था?

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आँखें मेरी भर-भर आयीं,

हाँ, मैं तेरे ही जैसा था,

शायद हर कोई होता है,

कहना चाहा तभी लपक कर,

मेरे कानों में मुझ को छू कर,

धीमे से वह फुसफुसाया,

जैसे अपनी किसी साजिश का,

सहज सहभागी मुझे बनाया।

बड़ा होना कैसा होता है?

क्या सबकुछ अलग जैसा होता है?

क्या बड़ों की बातें बड़ी होती है?

वे काम बहुत ही भारी करते,

क्या खेल-खुशी भी ज्यादा होती,

या हमसे भी हैं ज्यादा लड़ते?

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अब कितना कुछ था कहना मुझको,

पर पहला सिरा नहीं मिल पाया,

बच्चा आगे गया बोलता,

मेरा सुनते जाना और भी भाया।

क्या अच्छा लगना अच्छा लगता है?

क्या मन उसे ढूँढता रहता हर क्षण?

बुरी जो लगती उन बातों से क्या,

हैं दूर भागते बड़े भी हरदम?

बच्चा यूँ कहता ही जाता,

पर मैंने बीच में टोक दिया,

कोई बांध हृदय में टूट रहा था,

बड़े जतन से रोक लिया।

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हाँ, मैं तेरे जैसा ही था,

शुरु में सब ही खरे होते हैं।

सबसे अच्छा बनने के सपने,

देख-देख बड़े होते हैं।

बड़े होने में तन खिंचता है,

तन के संग मन भी खिंचता है,

और इस खिंचाव पर कई बार,

नहीं रहता अपना कोई अख्तियार,

एक सिरा सम्हालो तो

दूसरा पकड़ से फिसल जाता है,

लगता है सब है सधा हुआ,

पर हाथ से सब कुछ निकल जाता है।

अंत में जो संग बचता है,

तुम्हारी पहचान बन जाता है,

असली रंग रूप से भले तुम्हारे,

नहीं कोई इसका नाता है,

अच्छा लगना अभी भी अच्छा लगता,

पर अच्छे का चेहरा जटिल हो गया है,

बुरा लगना भी बुरा ही लगता,

पर व्यवहार इसका कुटिल हो गया है,

हाँ, एक और बात,

जो नहीं रह सकता बिना बताये,

कह लेने दो ताकि मेरी,

बात अधूरी ना रह जाये।

तुम्हें अच्छे याद देर तक रहते,

तुम बुरे को जल्दी भूल हो जाते,

हम अच्छे को बहुत परखते,

अच्छा मानने से हैं कतराते,

बुरे को जिन्दगी भर मन में पालते,

पिला पिला कर खून जिलाते।

.

बच्चा थोड़ भ्रमित-चकित-सा,

एक पल मुझको रहा निहारता,

बोला मुड़कर अपने बचपन में,

क्या रूठना और मनाना,

बड़े भी करते हैं अनबन में?

क्या अब भी वैसे ही हक से,

अब भी प्यार जताते हो,

क्या कुछ अच्छा नहीं लगता तो,

खुलकर तुम बतलाते हो?

.

बच्चा रुका, तो मैं भौंचक था,

रहा निहारता उसको कुछ पल,

चाहा उत्तर ना दूँ कोई,

पर कर न पाया मैं ऐसा छल।

रुका, साँस ली, आँखों के जल को,

दिया सूखने, और फिर बोला,

पता नहीं कैसे पायी हिम्मत,

इसबार नहीं बदल पाया चोला।

जैसे जैसे हम बढते हैं,

रूठते तो नहीं बताते हैं,

और मनाये जाने का हक,

हरदम अपना ही जतलाते हैं,

कोई मुझसे क्यों कर रूठे,

मैं तो सदा सही करता,

रही बात मनाने की तो,

करता नहीं, बस दम भरता।

जो अच्छा नहीं लगे बतलाना,

उसे असंगत कहने लगते हैं,

आभार मानना, प्यार जताना,

हमें भावुकता लगने लगते हैं।

.

मैं ठिठका, बच्चे को देखा,

आखिर क्या यह कर रहा हूँ,

बाल सुलभ जिज्ञासू मन में,

हताशा अपनी क्यों भर रहा हूँ।

छिपा-छिपा हारों को अपनी,

कह रहा सब विधि का लेखा।

मैंने फिर से बच्चे को देखा।

.

आँसू बहने लगे धार-से,

गले लगा कर सहज प्यार से,

उसकी आँखों मे मुस्काया,

मन की बात कहने पर आया।

जो तुम देख रहे हो सच है,

जो हुआ है अब तक उसका फल है।

व्यक्ति हारते, सपने मरते,

हर दौर गुजरता लड़ते-लड़ते।

पर कुछ है जो कभी न मरता,

अच्छे में विश्वास अडिग हो,

तो पराजय से भी विश्वास उभरता।

मानव सिमित है, चूक है सकता,

पर कभी न हारती मानवता,

जब तक तुम हो प्रश्न तेरे हैं,

प्रगति के पथ पर तू है चलता।

चिर जिज्ञासू

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इस निष्ठुर नियति के संसार में,

‘हूँ क्यों मैं?’ के निर्मम विचार में,

मोह भंग और आसक्ति ज्वार में,

चिर सृजन-ध्वंश के पारावार में,

कर्तव्य और अधिकार, हैं तेरे स्वीकार के याचक,

विधि सदैव तटस्थ, यदि पहुँच सको तुम उस तक।

जीवन के प्रति सहज आभार में,

गति और दिशा के परिष्कार में,

ईंधन के अर्जन और उपचार में,

उचित-अनुचित की तीक्ष्ण धार में,

कुछ भी सत्य ना मिथ्या, जीवन मात्र जीवन है होता,

तू ही लिखता भवितव्य, विधि बस तेरे संग है सोता।

लुप्तप्राय सृष्टि के विस्तार में,

सूक्ष्म चेतना के हर चमत्कार में,

प्रकाश पुंज और अंधकार में,

इस जीवन के सकल आकार में,

हर वेदना स्वीकार, यदि हो सृजन के हेतु तो,

नमन अंगीकार यदि, यदि उन्नयन के हेतु तो।

अकिंचनता के हाहाकार में,

दिनचर्या के सतत व्यापार में,

भूख, पिपासा, लवण-क्षार में,

अस्तित्व रक्षण के हर उधार में,

हर यत्न तेरा अधिकार, यदि जीवन-प्राण हेतु तो,

हर भीति पर प्रहार, यदि लक्ष्य के संधान हेतु तो।

प्रश्न तुम्हारे, अर्थ तुम्ही हो, निश्चय कुछ निर्माण हेतु हो,

सब रंग जीवन के हैं तेरे, हो चिर जिज्ञासू, ज्ञान सेतु हो।