
समय के साथ चलते-चलते,
प्रवाह के साथ बहते-बहते,
कभी डूबकर, कभी तैरते,
कभी उनींदे, कभी सजग मन,
नापना समय को याद रहा,
पर उसे जानना भूल गया।
याद रहे क्षण, प्रहर और पल,
खगोल पिंड गति याद रही,
परंतु यह है क्या, क्यौं हमे मिला,
कभी इसकी चर्चा हुई नहीं।
आदि हीन लगता अनंत-सा,
अखण्डित, अक्षुण्ण और निरंतर,
पर ज्ञात नहीं यह चलता हमसे,
या सारी सृष्टि है इस पर निर्भर?
है श्रोत कहीं जो इसका उद्गम?
बीत गया तो गया कहाँ यह ?
यह चलता है या हम चलते ?
या दोनो ही हैं भ्रम के प्रत्यय ?
या अंतहीन यह किसी वलय-सा,
चिरंतन, काल चक्र आवर्ती?
तो क्या हम बस इस गति के हैं इन्धन,
अभिशापित, अर्थहीन, क्षणव्यापी?
नाप तौल की बात करूँ तो,
है क्यौं इतना स्थिति सापेक्ष यह?
कभी रुका-रुका सा लगता,
और कभी विषमगति, वक्र, ह्रासमय।
प्रश्न बहुत हैं जिन्हे विज्ञान समझे,
पर मेरी एक भोली जिज्ञासा,
मैं समय के गोद पड़ा हूँ,
या है समय मुट्ठी से पल-पल रिसता-सा?
अनादि, अनंत, अखंडित, शाश्वत,
अप्रमेय, सर्वग्राही, सर्वत्र विद्यमान ।
समदर्शी, समस्पर्षी, सुलभ सबको एक समान,
हे देवतुल्य, चिरसखा समय, शाश्वत प्रणाम।
शाश्वत प्रणाम ।
Nice blog
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