संशय आशा विश्वास

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मुझसे शुरू होकर

दिगंत तक जो जाता है,

हर बार प्रश्न बनकर जो लौट-लौट आता है,

क्या यह सब एक छलावा है।

या कहीं कुछ इसके भी अलावा है।

 

संशय

 

क्या हूँ, कहाँ हूँ, कौन हँ,

आक्रांत हूँ और मौन हूँ।

क्या इस प्रश्न का उत्तर मेरा देय है।

क्या बँधा हूँ मैं

किन्ही यक्ष प्रश्नों के बंधनों में,

या इस सबसे अलग

मेरे होने का कोई ध्येयहै।

कया होगा

अगर उत्तर मिल भी गया तो।

क्या लगेगा कोई पूर्ण विराम,

या काल के प्रवाह में

यह अद्रिष्य-सा सूक्ष्म कण

रहेगा निन्दित अपने अहम के लिये।

अपने सारे वहमके लिये।

और खुल जायेंगे

मुझे बेधते-मुझे भेदते

नये-नये आयाम।

क्या सचमुच है कहीं कोई पूर्ण विराम।

 

पर प्राण की जो आग है,

मन में जलता जो आलोक है,

और अहर्निष झंझा-सी जो ये चेतना है,

उसका मैं क्या करूँ।

जड़ हो जाऊँ, चुप रहूँ

और समा जाऊँ अपने ही अंदर

कि इस ब्रह्मांड में इतना ही मेरा दावा है।

या इसके भीकुछ अलावा है।

 

 

आशा

 

 

अनन्त-सा इतना बड़ा संसार,

इतने चमत्कार,

इतने सारे अद्भुत व्यापार,

व्यर्थ तो नहीं होग।

सूर का उगना-ढलना,

जीवन चक्र कारुकना-चलना,

इनमें कोई अर्थ तो कहीं होगा।

यदि हाँ- तो सम्भावनाएँ हैं,

विकल्प हैं

आधार है।

तर्क से परे, ज्ञान से अलग

आशा का जो प्रस्फुटन है

मूर्त होता बरवस वह निराकार है।

और इसके बाद

संघर्ष है पर भय नहींहै।

अपने होने पर कोई संशय नहीं है।

धमनियों में बहता लहू उष्ण पर बेचैन नहीं है।

अस्तित्व अपने हीं प्राण की आग में जलता दिन-रैन नहीं है।

सृष्टि सिर्फ मेरी नहीं,

पर इसमें मेरा हिस्सा है।

नहीं अनूठी सबसे लेकिन

मेरा भी एक किस्सा है।

मन सुनता अंतर्मन से आता एक बुलावा है।

हाँ-हाँ, इसके भी कुछ अलावा है।

 

विश्वास

 

समग्र का एक अंग हूँ,

सूक्ष्म-सा तरंग हूँ।

हूँ छोटी-सी वह कोशिका,

चेतना की दुःश्रव्य ध्वनि,

है शृष्टि यह जिससे बनी।

हर गति में,

हर प्रगति में,

अमूर्त में, साकार में,

व्योम के विस्तार में,

संघर्ष में अवकाश में,

और हरेक विकाश में।

मैं हर जगह मौजूद हूँ,

और चेतना के साथ हूँ,

इस संवेदना के साध हूँ,

कि इस रचना का रचयिता हूँ।

जान गया हूँ अब मैं खुद को,

मैं स्वयं ही अपनी अस्मिता हूँ।

 

मत दो दोष मुझे अहंकार का,

पूजक मैं तेरे विस्तार का,

मैं नतमस्तक, मैं श्रद्धामय

मुझमे अनुभूति तेरे आभार का।

 

मुझको मेरी निजता दे दो,

और दे दो अपनी साँसों पर अधिकार,

मुझमें जो सर्जन की क्षमता,

मुझमें जो चिंतन की क्षमता,

मात्र इसे कर लो स्वीकार।

 

मैं जीव हूँ, छाया नहीं,

चलता हूँ, मात्र गया चलाया नहीं।

यह पूरा अनछुआ सच है,

नहीं इसमें कोई दिखावा है।

छलावा जो भी हो,

इतना तो निश्चय ही इसके अलावा है।

दोस्ती

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दोस्ती

ताना बाना नहीं है,

बँधना बँधाना नहों है।

बस खुलते जाना है।

 

दोस्ती

एक दूसरे तक आना जाना नहीं है,

दूर होकर भी साथहोने एहसास जताना है।

 

दोस्ती

सुनना सुनाना नहीं है,

रूठना मनाना नहीं है,

खोना औरपाना भी नहीं है,

दोस्ती

बिना कुछ कहे भी

एक दूसरे को समझ पाना है।

दोस्ती

विश्वास की चट्टान है,

चरित्र का खजाना है।

और इसका रंग

उतना ही गहरा

जितना यह पुराना है।

 

ःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःः

 

 

दोस्ती बचपन की पहली चाहत,

दोस्ती औरों को अपनाना,

मैं को खोना, हम को पाना,

दोसती सुकून उम्र भर की है,

घबड़ाहट में जैसे राहत।

 

दोस्ती है खुद को दे देना,

पीछे रख कर तेरा-मेरा,

जहाँ मिल गये वहीं बसेरा,

देने से परहेज नहीं,

और लेना जैसे खुद से लेना।

 

दोस्ती जैसे घर का पता हो,

कभी कहीं जो भटक गये तो,

पता लौट के कहाँ है जाना,

-नहीं सूझता कुछ यार बता दो-

दोस्ती जैसे घर का पता हो।

 

दोस्ती खुली आँखों का सपना,

कभी भी बाँधे नहीं बँधेगा,

कभी साँचे में नहीं ढलेगा,

झगड़े, प्यार, मनुहार दिल्लगी,

रोना गाना सब है अपना।

 

दोस्ती मुक्ति का बोध हरेक क्षण,

पोर-पोर बस खुलते जाना,

गप्प सराके, हँसी ठहाके,

यह भी भूला, वह भी विस्म्रित,

शेष बचा तो केवल जीवन।

दोस्ती मुक्ति का बोध हरेक क्षण।

 

निवृति

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कैसा गुजरा, वक्त जाने।

मैं जिया।

लिया दिया,

खोया पाया,

हँसा रोया,

बहुत कुछ है विस्म्रिति के भूतल में,

बहुत कुछ चिन्हित स्मृति पटल पे,

बहुत कुछ भूला, बहुत कुछ जाना,

पर हर क्षण में अपनी चेतना का स्पर्ष किया।

मैं जिया।

 

सकुचे शर्माये नहीं,

डरे घबड़ाये नहीं,

कीचड़ में पाँयचे उठाये नहीं,

लहू और पसीने से

अपने आपको बताये नहीं,

भीड़ में शामिल होके,

भँवर में दाखिल होके,

दूर-दूर तक अमृत को ढूँढा,

जरूरत हुई तो विष को भी पिया।

मैं जिया।

 

खुद को कभी खोया नहीं,

पैरों चला, अपने को ढोया नहीं,

जो किया, जो कहा,

उसका पूरा दायित्व लिया,

यह युद्ध नहीं था जीवन धा,

घाव सहे, सम्मान किया।

मैं जिया।

 

किससे सीखा, यह मत पूछो,

कब रहा अनछुआ याद नहीं,

सबके ऋण साँसों मे हैं,

कोई इसका अपवाद नहीं।.

 

अपनी शर्तों पर जीने वाला,

क्या दंभ करूँ कुछ देने का,

बस कोशिश की और ध्यान दिया,

सबको अपना-सा मान दिया।

 

कुछ ऐसे हीं मैं जिया।

एकांत

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अपना सबकुछ अपने आपको ही दे देना।

 

जैसे खुद ही नाव और खुद ही पतवार भी,

खुद ही किनारा और खद ही मँझधार भी,

 

खुद ही धारा और खुद ही बहावभी,

किनारों से दिखती सम गति भी और

पानी में  दिखता ठहराव भी,

 

ना समरसता की ऊब

ना परिवर्तन की हिलोड़ें,

कोई तृष्णा नहीं पूछती-

क्या पकड़ें क्या छोड़ें।

 

भयावह नहीं लगता अंतहीन विस्तार,

सहज सरल लगते जो दिखते

साकार निराकार निर्विकार।

 

ऎसे में

कभी पतवार यूँ चलाना

कि गति तो हो

पर नहीं कोई स्पंदन,

एक पीड़ाहीन व्यथा

पर नहीं कोई क्रंदन।

 

बस स्वयं से एक नीरवसंवाद

और आत्मा से निकलती एक मादक मूर्छा-

कि समग्र अस्तित्व पूछ उठे-

यह क्या था,यह क्या था।

 

ना कोई घात ना प्रतिघात,

ना कोई अपराधबोध,

ना ही अहम और पराक्रम की विभीषिका।

मात्र पूरे  ब्रह्मांड से तरल सहजता।

 

मैं ने अपने आप को खुद को दे दिया।

 

अन्तर्निहित

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अजीब-सी बेफिक्री में हँ आजकल।

कल के खयाल भी आज याद नहीं आते।

कितना कुछ खो जाता है।

पर मलाल नहीं है।

अपने से आँख तरेरे कोई सवाल नहीं है।

 

अच्छा लगने लगा है

कि कुछ भी ठहरता नहीं है,

अनचाहे उद्वेगों की गति सम होने लगी है

और किसी भी चीज पकड़ने की जिद भी

कम होने लगी है।

 

कुछ किसी और का हो जाये न कहीं-

डसता नहीं है भरमाता नहीं है।

खोने का डर भी हर पल कुछ संजोकर

रखलेने को उकसा पाता नहीं है।

 

कोई कातरता नहीं है,

इस अपरिग्रह में, इस विराग में

लगता है सब कुछ सही है।

नहीं, कहीं से भी यह

हौसले की कमी नहीं है।

 

केई समझौता नहीं वहाँ तक पहुँचने

अपने तरीकों से

और कोई बदलाव नहीं चीजों से रू-ब-रू होनेके

अपने सलीकों में,

बस पाने और खोने का फर्क

अपना रंग खोने लगा है।

ऊपर से यह कि हारने और छोड़ने

के बीच का महीन-सा फर्क अब

साफ-साफ दिखने और भाने लगा है ।

सचमुच इस बेलगाम बेफिक्री में

जीने का मजा आने लगा है।

 

 

स्निग्धद्धता

 

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कभी-कभी रोया करो।

 

आँखें नम होंगी

तो जलन कम होगी।

 

धुँधलका छँटेगा

और दूर तक दिखेगा।

 

दाग धब्बे कम नजर आयेंगे

मिटते वहम नजर आयेंगे।

 

एक बात बताता हूँ

करके देखोगे तो मान जाओगे

जब भी सूखेगी पलकें

अपने आप को धुला पुछा पाओगे।

सानिध्य

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तल्खियों को बसएक शाम की जरूरत है।

हमें तो शिकायतों से भी मुहब्बत है।

 

ये शोखियाँ, ये कहकहे,

कितने किस्से अधकहे,

ये हल्की-हल्की बेखुदी,

यकीनन,

जिन्दगी बड़ी खूबसूरत है।

प्रतिरोध और करुणा

प्रतिरोध अगर न कहीं पड़े,
पौरुष अगर न कहीं अड़े,
तो बल कोइ कहाँ लगायेगा?
शून्य से लड़ क्या पायेगा?

आँखों में यदि पानी न हो,
पड़ पीड़ा पहचानी न हो,
दिन रात बीतते जायेंगे
क्या यह जीवन कहलायेगा?
या शून्य ही शून्य रह जायेगा?

भाव

भाव निखर।
हो चिरंतन, कर मुखर।
रह सरल, तरल, सुलझ सँवर।

अमृत नहीं, बस ज्ञान मृत्यु का;
सहज प्रेम, स्पष्ट शत्रुता;
ऐसी ही सीधी बातों का मुझ पर जादू कर।

भाव निखर।

छोटे-छोटे सुख

छोटे-छोटे सुख इतने छोटे क्यों हो गये?
दूर खड़े हो गये हम क्यौं पहाड़-से?
एक-से पर अलग-अलग तने देवदार-से?
कि उतरी परी आसमान से तो सर भी न झुका सके हम।
धड़कता है कुछ हमारे सीने में भी
इतना तक न बता सके हम।
बने तो हम खरे थे
खोटे क्यौं हो गये?
छोटे-छोटे सुख
इतने छोटे क्यौं हो गये?