फुर्सत में अपने आप को देखा,
तो थोड़ा थकमका गया।
बहुत जाना पहचाना था चेहरा,
पर पहचानने में थोड़ा वक्त लगा।
बुरा लगा कि वक्त लगा,
पर सुकून मिला कि वह चेहरा,
चा हे जितना भी बदला हो,
अब भी काफी वैसा ही था।
थोड़े कौतूहल और थोड़े अचरज से,
भरा-भरा चेहरा,
कुछ कहने से पहले सोचता,
हिचकिचाता, फिर कहता चेहरा,
भरी दोपहर धूप में चलता,
जलता, फिर भी सपनों में रहता चेहरा,
अधखुली किताब-सा आधी छिपाये,
आधी कहानी को अपनों से कहता चेहरा।
किताबों य़े जब धूल हटाई,
एक हैरत अंदर फूट पड़ी।
पढ चुका किसे, किसे छुआ नहीं,
कौन-कौन मिले तोहफे में,
और कौन किसीकी छूट गयी।
इतनी महकें जानी-अनजानी,
इतनी निशानें सीधी-बहकी,
और मुड़े-तुड़े पन्नों की यादें,
कुछ साथ हैं अब भी, कुछ रूठ गयीं।
यादें जिंदगी के चहरे हैं,
या कोई तिलस्म का जंगल?
देश काल और पात्रों में उलझे,
बहते जल की धार-सी चंचल।
राह दिखाती, मन भरमाती,
शक्ति श्रोत, पर करती विह्वल।
साँसों जैसी प्राण नियामक,
भाव चक्र का चिरंतन शतदल।
यह फुर्सत, और ऐसी खाली पहरें,
एक दूसरे से खेलती लहरें,
जाती कभी भी कहीं नहीं,
पर चलती रहती साँझ दुपहरे।
कितना बीता, कितना बाकी,
कितने परतें, कितने पहरे,
लाख लगाये काले चश्मे,
पर सब कुछ तो कह जाते चेहरे।