सच के संग

Photo by Eugene Golovesov on Pexels.com

अध्ययन से अर्जित ज्ञान से नहीं,

जीवन में मिले सम्मान से नहीं,

मन के अक्षुण्ण अभिमान से नहीं,

विधान के दिये हुए प्रमाण से नहीं;

अंतिम निर्णय में हम उतने ही भले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

संवेदना की गहन चेतना से नहीं,

दर्शन के सूक्ष्म विवेचना से नहीं,

दिव्य आलोक की संभावना से नहीं,

उत्तुंग शिखर पर पद स्थापना से नहीं;

अज्ञान तिमिर में उतने ही दीप जले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

बीते हुए पथ के वैभव से नहीं,

अर्जित किये हुए अनुभव से नहीं,

प्राप्त सारी निधियाँ दुर्लभ से नहीं,

साधे हर असम्भव-सम्भव से नहीं;    

सार्थकता के साँचे उतना ही ढले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

भुजाओं में निहित पुरुषार्थ से नहीं,

मन में बसे कुरुक्षेत्र के पार्थ से नहीं,

भ्रम से मुक्ति, या स्पष्ट अर्थ से नहीं,

परलोक के हेतु किये परमार्थ से नहीं;

प्रकाश के पुंज राह में उतने ही जले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

अन्वेषण के आह्लादों से नहीं,

चिंतन से नहीं, संवादों से नहीं,

त्याग से नहीं, आस्वादों से नहीं,

अर्जित हुए सारे साधुवादों से नहीं;

भाग्य के उतने ही आशीष फले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

जीवन सुरभित करते हर्ष भी भले,

सत्य और यथार्थ के स्पर्ष भी भले,

सारे पुरस्कार और संघर्ष भी भले,

चेतना व्यापक करते उत्कर्ष भी भले;

हम सार्थकता के रंग उतने ही ढले हैं,

जितना जीवन में सच के संग चले हैं ।

.

जीवन में अंतत: हम उतने ही भले हैं,

जितना हम सच के साथ चले हैं ।

दीया जलेगा

Photo by George Becker on Pexels.com

धूप का धीरे-धीरे कम होना,

उजाले का क्रमश: मध्यम होना,

गहराता मन का कोना-कोना;

थकी नसों में शीतलता जगती,

शामें हैं इतनी अच्छी लगती,

इसलिये कि तय है दीया जलेगा,

एक और उजाला साथ चलेगा ।

.

अंतरिक्ष के तारों-से झिलमिल,

माया रचे दीप अंधकार से मिल,

भयभीत नहीं, पलकें हों स्वप्निल;

स्वागत बाँह पसारे रात का,

निमंत्रण स्वीकार इस अज्ञात का,

इसलिये कि तय है दीया जलेगा,

अंधकार अब नहीं छलेगा ।

.

जो बाधाओं से जूझ प्राप्त हो,

साध चित्त के भय को, भ्रांति को,

जन्म देता उस चिर सामर्थ्य को;

प्रगट जिससे अंधकार में आशा,

विश्वास जीवन में हर पल बढता-सा, 

जब भी हमने कोई दीया बनाया,

जीवन को सत् की ओर बढाया ।

.

निविड़तम निशि में भी विश्वास पलेगा,

जो हमने बनाया वह दीया जलेगा ।

बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है

Photo by Lucas Pezeta on Pexels.com

मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है

,

कभी अपनी यात्रा के आरम्भ का अनुमान लगाने,

कभी बीते पथ को निहारने आत्मीय स्नेह से,

कभी फिर से जीने, बीते क्षण अतिरेक के,

पर अधिकतर अब तक के बीते समय का आभार जताने,

बीते की जटिलता से ही उभरती,

आगे की दिशा-रेखा है ।

 मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है ।

,

स्पष्ट है,

कि हर उत्कर्ष की यात्रा की भाँति,

इसमें भी बीते बिंदु लगते अभी से नीचे हैं,

प्रतीत होते,

आज के यथार्थ से आँखें मीचे हैं,

परंतु यही तो इस यात्रा का अर्थ है,

इतना सदा सत्य रहेगा,

कि आने वाला कल,

आज के लिये भी ऐसा ही कहेगा,

सच कहूँ तो मुझसे,

रहा नहीं किभी भी वर्तमान का सौंदर्य अनदेखा है।।

मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है ।

,

पैरों में चुभते शूलों की,

अपने निर्णय के भूलों की,

अपने हाथों हुए विनाश की,

पश्चाताप और गढने के हर प्रयास की,

हर हर्ष-वेदना मुझे स्वीकार है,

अतिशयोक्ति नहीं कि मुझे बेहद उनसे प्यार है,

वे जोड़ते मुझे हैं उस विधा से,

जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि का लेखा है ।

मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है ।

,

अभी तक आभास हो रहा है जिस आकर्षण का,

सहगामियों की परछाईयोँ से जुड़े स्नेह बंधन का,

जिनकी स्मृति अनायास ही धन्यता से भर देता है,

बीते के गौरव अनायास गौरवान्वित कर देता है,

शीतलता देने में सक्षम आज की हर व्यथा में,

सदा एक सरस अर्थ देता हर संघर्ष की कथा में ।

हर निराशा के पल इन्हीं स्मृतियों साँसों में भर देखा है ।

मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है ।

,

नियमों की परिधि से अलग हो कर,

संवेग के उत्प्लावन में खो कर,

पूर्णत: निष्काम हो,

शुचिता के बीज बो कर,

देख लिया, और पाया,

बाकी आभूषण हैं, तत्थ्य मात्र यात्रा है ।

यात्रा सार्थक तभी लगी ,

जब पूरी यात्रा से जुड़ कर देखा है ।

मैं ने बार-बार पीछे मुड़ कर देखा है ।

पूर्णता और पूर्णता की यात्रा

Photo by Pixabay on Pexels.com

पूर्णता के प्रयास में,

राह में मिलते आलोक बिंदु,

मात्र मरीचिका हैं,

या संभवत:,

दिशा के सही होने के आभास हैं?

पर यदा कदा मन में कौंधता,

चकाचौंध करता,

पूर्णता का विश्वास,

 प्राय: कुछ और नहीं है, छलना है?

कदाचित यही वह छद्म है,

जहाँ विवेक को सम्हलना है ।

.

जब प्रतीत होता सब कुछ सही,

 कहीं भी कोई कमी नहीं,

कोई ऐसी कहानी नहीं,

जो बच रही हो अनकही;

हम जड़ हो रहे होते है,

अपनी संवेदना खो रहे होते हैं ।

.

घुमावदार रास्तों से चलते हुए,

मोड़ आकर्षित नहीं करें,

सिर्फ तय किये हुए दूरी की चिंता हो,

मन में केवल उस पार का सवाल हो,

मोड़ों का होना आनंद नहीं,

प्रतीत होता व्यवधान हो,

रोमांच एक बेमतलब का खयाल हो;

जीवन जिया नहीं जा रहा होता,

गुजारा जा रहा होता है,

साँसें चलती है,

मन, जड़वत सोता है ।

.

अपनी पीड़ा विशाल लगे,

परपीड़ा की हृदय में अनुभूति न हो,

पर अपनी हर व्यथा के लिये,

सारी दुनियाँ को खड़ा कर रहे हों,

सवालों के घेरे में,

स्वयम् अपने दायित्व की प्रतीति न हो,

ऐसे में कब अचानक,

 जीवन के अवयव बदल जाते हैं,

मन के विचार ढल जाते हैं,

अपने हित से,

औरों के अनहित की इच्छा में,

और परोपकार की भावना परपीड़न में,

और इस बदलाव का हमें पता नहीं चलता ।

ऐसे में लड़खड़ाता कदम फिर नहीं सम्हलता ।

.

एकांत का सम्मोहन भी,

समूह के सकल बंधन भी,

निर्पेक्ष चिंतन के उत्तुंग शिखर,

समरसता का आस्वादन भी,

संग साथ के बंधन भी,

अस्तित्व  ज्ञान का अकेलापन भी,

जब एक साथ करें आकर्षित,

लगें जटिल, पर करें सम्मोहित,

नयी जिज्ञासाएँ जगती रहें हर पल,

पुरानी होती रहें तिरोहित,

जीवन सम्पूर्णता की ओर बढ रहा होता है,

सार्थकता के सोपान चढ रहा होता है ।

.

पूर्णता के प्रकाश की चकाचौंध से,

सहज है खुद को छलना,

पर जीवन है,

खुद को जला प्रकाश पाना,

और अपने ढूँढे रास्तों पर चलना ।

तुम्हारा होना, नहीं होना एक समान है

Photo by Pixabay on Pexels.com

मेरी समग्र चेतना,

एक साथ उत्प्लावित और स्तब्ध है,

कि तुम्हारा होना,

तुम्हारी अनुपस्थिति में भी उप्लब्ध है।

तुम्हारा मेरे संग होना,

या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,

मुझे लगता एक समान है,

मेरा तुम्हें एक बच्चे की भाँति जकड़े रहना

तुम्हारा मुझे सदा स्वच्छंद छोड़ देना,

इसका प्रमाण है ।

.

जब भी मैं ने अपनी धड़कन सुनी,

जब भी अपनी साँसों को महसूस किया,

जब भी बाहर से सिमट कर अपने अंदर जिया,

और तुम्हें प्रत्यक्ष नहीं पाया,

चौंका नहीं, निराश नहीं हुआ,

क्योंकि तुम वहाँ नहीं हो,

ऐसे विचार ने मुझे कभी नहीं छुआ ।

मेरा होना ही मुझे कहता है,

तू विद्यमान है ।

तुम्हारा मेरे संग होना,

या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,

मुझे लगता एक समान है ।

.

जब भी मैं,

प्राप्ति की अनुभूति से जाता हूँ भर,

छलकते रहते हैं मेरे संचित,

उछृंखल हो  कर,

या जब भी मेरे पूरे विस्तार में,

निपट शून्यता आती है उभर,

विश्रांति का आलस्य छाने लगता है मुझ पर,

दोनों ही स्थिति में,

एक-सा ही भाव समर्पण का,

मुझे हल्के से सहलाता है,

फिर पूछता है मुस्कुरा कर,

क्या तुम जानते हो,

तुझे मिला यह सब किस विधि का विधान है ?

तुम्हारा मेरे संग होना,

या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,

मुझे लगता एक समान है ।

.

अपने अस्तित्व के निरंतर आकलन में,

‘जो करना है’, के उद्यम में,

और ‘जो कर चुका हूँ’, के अध्ययन में,

एक प्रश्न उठता बार-बार, पग-पग पर,

करना और होना क्या हैं, युग्म, हैं अनंतर?

क्या एक दूसरे के आगे पीछे,

क्या आश्रित एक दूसरे पर?

देखूँ शुरू से अंत की ओर,

या अंत से निहारूँ आरंभ के छोर

जो होता है दृष्टिगत,

है जीवन, सम्पूर्ण, अक्षुण्ण, अक्षत,

इसमें कुछ भी विभाजित नहीं होता,

कुछ जीतने से कुछ पराजित नहीं होता,

कुछ जुड़ने से इसका आकार बड़ा नहीं होता,

कुछ घटने से लघुता का संकट खड़ा नहीं होता,

जो होता है, होता है,

जो नहीं होता, वह भी समग्र का एक अंश होता है।

इस जीवन के यायावर के लिये,

तुम्हारा प्रत्यक्ष नहीं होना भी,

मात्र एक होना है,

कदापि नहीं है तुम्हें खोना ।

शून्य और समग्र के बीच हर कुछ,

एक दूसरे से  जुड़ हुआ है पूर्णत:,

यही समेकितता प्रतीत होता वास्तविक ज्ञान है ।

तुम्हारा मेरे संग होना,

या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,

मुझे लगता एक समान है ।

यात्रा

Photo by Joshua Welch on Pexels.com

कोई भी यात्रा रहती अधूरी,

जब तक न कर ले पूरी,

अपने केन्द्र बिंदु के अंदर की,

और अपनी परिधि के बाहर की यात्रा,

जैसे अधूरे रहते हैं शब्द संयोजन के बिना,

और प्रयास किसी प्रयोजन के बिना।

.

अपनी परिधि पर आवर्तों में घूमना,

निश्चय ही अनिवार्य अंग है जीवन का,

पर धरातल से ऊपर उठने के संदर्भ में,

इसका कुछ अर्थ नहीं होता,

हर गति जो आवश्यक है,

उत्कर्ष में समर्थ नहीं होता।

.

जब तक पूर्वाग्रह से मुक्त मन में,

भव भय से हीन, उन्मुक्त क्षण में,

हृदय के किसी आंतरिक विन्यास से,

विवेक से अर्जित किसी बल के प्रयास से,

एक वांछित आवेग नहीं हो प्रयुक्त,

यद्यपि मुक्त,

गति नहीं जाती केंद्र बिंदु की ओर,

व्यक्ति रहता है यथास्थिति में ओतप्रोत,

सहज गति से विभोर।

.

और जब तक स्वप्नों का कोई अज्ञात संसार,

नहीं करता झंकृत मन के द्वार,

अभिनव की जिज्ञासा नहीं करती उद्विग्न,

आकांक्षाओं का संवेग नहीं ले जाता निर्विघ्न,

पार,

आंतरिक मोह के पाश के, संशय के,

परिवर्तन के विरुद्ध उठते हठ और भय के,

तो सहज वेग परिधि से,

बाहर कभी ले जा नहीं सकता,

हाँ, लीक पर चलने के आवर्तों को,

यात्रा भले रहे कोई कहता।

.

परिधि के बाहर की यात्रा,

हमारे अंदर बैठे चिर हठी बालक की जिज्ञासा,

और हमारे पूरे अस्तित्व को हर पल परिभाषित करते,

परिपक्व वयस्क की आकांक्षाओं,

की संयुक्त अभिव्यक्ति है,

भले ही इससे पारम्परिक प्रचलनों की,

असहमति है।

.

केन्द्रबिन्दु के अंदर की यात्रा,

समेटता है एक सूक्ष्म छिद्र में,

और ले जाता है सूक्ष्मता के पार,

जहाँ एक ओर हम होते हैं,

और दूसरी ओर पूरा संसार,

अपने विराट आकार में,

पूरे विस्तार में,

पूर्णत: स्पष्ट विवरण में,

अपने पूरे सौंदर्य में,

पर संवेदनाओं के हर क्षण नये संस्करण में।

वहाँ अपने प्रकाश भी स्वयम हम,

अपनी मीमांषा में सतत सक्षम,

अपना स्थान ढूँढते भी,

अपना स्थान करते परिभाषित,

हर दिशा में उन्मुक्त,

हर दशा में सुभाषित।

.

परिधि में घूमने को शापित,

ढूँढते हर पल अपने कवच में अपनी सुरक्षा,

सृष्टि के महाविन्यास में,

यंत्र का एक अर्थहीन अवयव होने से ऊपर,

हमारी उप्लब्धि हो सकती बस यही है,

धन्यता अंतत: इतनी ही सही है,

कि इन यात्राओं की उत्कंठा,

कितनी मन में जग पायी है,

इन उत्कर्षों की आकांक्षा,

हम में समायी है।

आगंतुक

Photo by Gildo Cancelli on Pexels.com

आगंतुक, दो-चार पहर,

कभी आ रुक मेरे भी घर,

मैं भी निहारूँ कुछ अभिनव,

नयनों में लूँ सपने भर।

कुछ देर ठहर, कुछ देर ठहर।

.

तेरी दृष्टि के छूने से,

आये अमूर्त संसार उभर,

तुझे छू लूँ बस एक बार,

हो हर भाव स्पंदित, मुखर।

जब तक उठे यह उद्वेग ठहर।

.

पदचाप नहीं, संकेत नहीं,

न कोई तरंग, न कोई स्वर,

जैसे आंगन धूप उतरती,

आकर तू मेरे द्वार उतर।

चुपचाप सही, कुछ देर ठहर।

.

तेरे होने के प्रकाश से,

पुलकित हर अणु हो-हो कर,

सुरभित हो और दीप्त रहें,

कम-से-कम मेरे जीवन भर।

कुछ ऐसा हो जो तू जाये ठहर।

.

प्रश्न न कोई पूछूँ मैं,

न आशा कि तुम दो उत्तर,

संबंध मात्र इतना कि तुम,

तुम आ जाओगे मेरे घर।

अज्ञेय, निराकार, पर तनिक ठहर।

.

मेरी शून्यता, मेरी नीरवता,

नहीं चाहता तुम दो भर,

तेरे स्पर्श से हो ऐसा कि,

हों उनके अर्थ प्रकट मुझ पर।

बस तब तक मेरे घर तू ठहर।

.

न अभिलाषाओं का विलास,

न यश, कीर्ति, न कोई लक्ष्य अपर,

पर्याप्त तुम्हारा परिचय हो,

थक जाऊँ यदि मैं बीच समर।

पराजय में भी, मेरे संग ठहर।

.

आगंतुक, बहुत हैं प्रिय जन तेरे,

है ज्ञात तुझे क्या मेरी डगर?

यदि नहीं, तो इतने से धन्य,

कि कभी-कभी देख लेना इधर।

क्षण भर तेरी दृष्टि जाये ठहर।

.

क्षीण न हो विश्वास मेरा,

कि आओगे एक दिन चल कर,

संभावना मुझे रखते जीवित,

कल्पना, गति, स्पंदन बन कर।

घर नहीं रुचिकर, तो मन में ठहर।

आगंतुक, यह भी तेरा ही घर।

अब तक के सम्मोहन से

Photo by Hilmi Iu015fu0131lak on Pexels.com

अपने ही ओढे बंधन से,

मृगतृष्णा के अभिनंदन से,

यदि मुक्त हो बाहर निकले,

अब तक के सम्मोहन से,

.

‘हो चुके’ के बंधन से छूटें,

रचना की ऊर्जा का ठौर मिले,

अति परिचय से उबरें तो,

क्या जानें कोई और मिले?

.

क्षीण हो चले जिज्ञासा जब,

कौतूहल हो कुंठित अनायास,

होने लगे मद्धिम आकांक्षाएँ,

मन छोड़ने लगे नये प्रयास,

.

इच्छा नहीं पुलकित होने की,

संवेदना बचे मुखरित होने से,

सपने भी अलसाने लगे और,

पुरुषार्थ दिखने लगे बौने-से,

.

समय वही है जबकि चेतना,

झकझोरे और तंद्रा तोड़े,

खींच-खींच कर प्रश्नचिन्ह,

उद्देश्य और लक्ष्य नया जोड़े।

.

इन-से ही पल, ऐसे ही क्षण,

होकर निर्पेक्ष परखते हमको,

अपने नियमों पर हम चलते,

या इच्छा वश में रखते हमको?

.

विधि ने निर्माण में हमारे,

जो अंश देवत्व का जोड़ा था,

हो तटस्थ है पूछता रहता,

क्या यह प्रयोग भी अधूरा-सा,

.

बाधा सकल हमारे अपने,

यदि डिगें न मौलिक चिंतन से,

है कौन जो रोक है सकता,

परम गति से, आरोहन से,

यदि मुक्त हो बाहर निकले,

हम अब तक के सम्मोहन से।

चांद को उगते देखा

Photo by Alex Andrews on Pexels.com

मैंने क्षितिज पर,

एक साथ,

कई चांदों को उगते देखा।

वे बारी-बारी से,

मेरे पास आ रहे थे,

कुछ तो था,

जिसे आजमा रहे थे।

मुझे भी नहीं भाती,

मेरी उदासीनता,

उन्हे भी नहीं भायी।

कोई दुराव नहीं था,

पर बात जिद पर बन आयी।

तुम वहीं ठहरो,

पास मैं आऊंगा,

मैं चुनूंगा तम्हे,

और मैं चिन्हित करूंगा,

इस पल की दिशा रेखा।

मैंने क्षितिज पर,

एक साथ,

कई चांदों को उगते देखा।

.

पास गया,

और पूछा पहले चांद से मैंने,

कौन हो,

क्यों मेरी ओर आ रहे,

क्या है जो तुम,

कहने जा रहे?

क्यों तुम इतने सारे हो?

मतिभ्रम है यह मेरा,

चांद ही हो या,

चांद-से दिखते तारे हो।

.

चांद ही हूँ,

तुम्हारे मन में उगता हूँ,

डूबता भी तुम्हारे ही मन,

तुम्हारी इच्छा पर ढलता हूँ,

ईर्ष्या, द्वेष, स्नेह, आसक्ति,

श्रद्धा, कृतज्ञता और विरक्ति,

जो रूप देते हो,

ले कर चलता हूँ।

अनगिनत रूप मेरे,

तेरे ही मन की,

संभावनाओं के आकार हैं,

जिस घड़ी तू जैसा चुनता,

मन के तंतु से जो भी बुनता,

हो जाता तुम्हारा चांद,

उसी प्रकार है।

.

मैं धटता हूँ, बढता हूँ,

पर सदैव तुम्हारे संग चलता हूँ,

चुन कर मुझे,

उस क्षण तुम मुझ-सा हो जाते हो,

पर मैं तुझमें ही पलता हूँ।

तारे  धटते-बढते नहीं,

स्थिर हैं,

तेरे संग चलते नहीं,

पर हर अमावस में,

तुम्हे राह दिखाते प्रकाश होते हैं,

मैं तुम्हारी भावना हूँ,

जीवन का स्पंदन हूँ,

संवेदना हूँ,

तारे तुम्हारी चेतना के श्रोत,

तुम्हारे विश्वास होते हैं।

.

जाना मैंने,

दृष्टि मेरी, चित्त भी मेरा,

संवेदना मेरी, विश्वास भी मेरा,

किन्तु सत्य कि जन्म- मरण,

और सृष्टि के दिये,

संभावनाओं के आवरण,

स्वीकार करें हम,

कदाचित हैं प्रारब्ध,

नियति निर्धारित विधि का लेखा।

तारों को नमन किया,

पर जीवन के अह्लाद को जाना,

अपने को सार्थक माना,

जब मैंने क्षितिज पर,

एक साथ,

कई चांदों को उगते देखा।