
समय जो बीत जाता है,
ज्ञात नहीं, कहाँ जाता है,
पर उसके कदमों की आवाज,
और उसकी परछाई,
रह जाती हैं।
हमें तराशती है, बनाती है।
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समय,
जो बीता जानने में, समझने में,
सीखने में,
खड़ा हो कर चलने में,
अबोध था,
इसीलिये निष्कलंक था,
बंधन के अर्थ समझता नहीं था,
इसलिये उन्मुक्त था,
परंतु,
अशक्त था,
इसलिये आश्रित हो पला,
बन रहा था,
इसलिये किसी साँचे में ढला।
साँचों को चुनने का वह वय नहीं था,
आह्लाद का था,
वह चिंता का समय नहीं था।
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समय ने फिर करवट बदली,
किरणें थोड़ी तीखी हो चली,
आँखों में चिंगारी,
और नसों का तनाव अच्छा लगता था।
सर पर बोझ भले ही था,
पैरों पर दवाब अच्छा लगता था।
सृजन और अर्जन के भाव,
जगने लगे थे,
मोह और सम्मोहन,
मधुर लगने लगे थे।
एक आवेश था, आवेग था,
मुग्धता थी, अनुराग था,
भोग था, उपयोग था,
मन चाहता संग्रह और संचय था।
नहीं वह रुक कर सोचने का समय था।
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थोड़ा ठहरा,
क्षीण होता शीर्ष का रोमांच कुछ कहने लगा,
आगे बढते अब ढलान पर उतर रहा था,
आरोह जैसा मान कदमों में मगर कहाँ था।
पर आह,
समय का त्वरित प्रवाह,
न रोमांचित करता,
न आतंकित करता,
सम गति का आकर्षण,
ठहराव का आश्वासन,
लगने लगा,
जीवन के आधारभूत अर्थो को,
रेखांकित करता।
जो बीता, प्रिय था,
संग ही नयी भावनाओं का,
हो रहा अभ्युदय था,
अपवाद भी स्वीकार्य होने लगे थे,
अच्छे और बुरे का स्मृतिमें,
होने लगा विलय था।
कीर्ति, पद, बल के अर्थ,
बदलने लगे थे,
आकांक्षा, अभिमान, छल,
विदूषक-से लगने लगे थे।
सबका कुशल क्षेम अब अपना था,
ईर्ष्या की चिंगारी कहीं बुझ गयी थी,
सबके लिये सहज प्रेम अब अपना था।
लाभ-हानि नहीं आय-व्यय नहीं था,
बस मैं अपने साथ था, और समय था।