टिमटिमाते दीये

Photo by Thilipen Rave Kumar on Pexels.com

दर्द जब कुछ बुझने लगता है,

जख्म पुराने पड़ पर जाते हैं,

बीते हादसों के नये मतलब,

सीने में उभरते नजर आते हैं।

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फिर समझ में आता है,

कि क्यों सदियों से कहा जाता है,

कि वक्त सबसे बड़ा मलहम,

सर पे हाथ रख बाप-सा सहलाता है।

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हादसों के नये मतलब,

खुद पर रहम करने से दूर करता है,

और अपना चेहरा एक साफ आईने में,

देखने को मजबूर करता है।

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बात बहुत दीगर-सी है,

फर्क, पर इससे बहुत बड़ा पड़ता है,

सच बेहतर दिखाई दे तो,

दिल का जहर कम असर करता है।

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अपनी शहादत का गुमान थोड़ा कम होता है,

औरों की सच्चाई नजर आने लगती है,

जिन वाकयों पर शक के बादल छाये थे,

उनमें छुपी अच्छाई नजर आने लगती है।

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थोड़ा और हल्का होकर,

दर्द जब आम-सा और गैर-रूमानी हो जाता है,

दर्द के पीछे छिपकर बैठा अपना चेहरा,

नहीं अब उतना मासूम नजर आता है।

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जख्मों पर कशीदाकारी,

और दर्द पर खूबसूरत नज्म लिखना,

बड़ा पुराना चलन है,

दर्द को बड़ दिखाना और दर्द से बड़ा दिखना।

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जख्म तुम्हारे हैं और दर्द भी तुम्हारा है,

उन्हें भी धूप और हवा चाहिये,

क्या कीमत जमाने से वसूलोगे उनकी,

बता पाओगे कि तम्हें क्या चाहिये।

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दरअसल ये कुछ निशान हैं,

जो जिन्दगी ने तेरे नाम किये हैं,

सम्हाल के रखो उन्हें,

ये तुम्हारी अंधेरी राह के टिमटिमाते दीये हैं।

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