
सारे सम्बंधों को छोड़कर,
सारे अनुबंधों को तोड़कर,
मन जब चला,
वेग तो था,
नियंत्रण नहीं था।
गंतव्य तो थे,
कोई आमंत्रण नहीं था।
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सारी सीमाओं को लांघ कर,
सारी दुविधाओं को बाँध कर,
उठे जब हाथ तारों को छूने,
लालसा थी, उत्साह नहीं था,
आकांक्षाएँ बहुत सघन थीं,
पर निष्काम कर्म प्रवाह नहीं था।
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धो कर सारे रुग्ण कलुष को,
बिना किसी लिप्सा के वश हो,
जब विश्व पटल को रंगना चाहा,
रंग तो खूब छिटके,
उनमें कोई आकार नहीं था,
चेष्टा मुखर थी,
जीवन से इसका कोई सरोकार नहीं था।
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अवचेतन में बार-बार कौंधता,
पूरा दिखता नहीं, पर लगता स्पष्ट-सा,
निर्बंध होने और बंधन के बीच,
दिशाहीनता और आमंत्रण के बीच,
वह सम्पूर्ण संसार है जो बुलाता है,
व्यर्थ ही मन यहाँ-वहाँ दौड़ लगाता है।
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प्रचंड ताप और निष्ठुर शीत के बीच,
अदम्य आकांक्षाओं और विरह के गीत के बीच,
सारी गतियाँ हैं, सारे प्रवाह हैं;
जो मिलेंगे चलते चलते,
सूरज-सा जीवन में उगते-ढलते,
आक्रांत मत कर जीवन को,
इसे जी,
इसमें सारे रंगों का निर्वाह है।