रचनात्मक मन हो

Photo by Anthony Shkraba on Pexels.com

नन्हे पग मन पर छाप छोड़ते,

गहते बाँह, फिर चुपचाप छोड़ते,

बंधन के सकल विकार तोड़ते,

जब भी टूटा, हर बार जोड़ते;

रूठूँ तुमसे जितनी भी बार,

तुम संग रहे सदा निर्विकार।

बन कर अनवरत रुधिर प्रवाह,

कभी नसों में अदम्य उत्साह,

दे मन गरिमा की अक्षुण्ण चाह,

कर अहंकार का भी निर्वाह;

रहस्यमयी, सामर्थ्य के दाता,

क्या है तेरा मुझसे नाता?

मानवता के मूल आधार ढूँढता,

स्वच्छंदता के विस्तार ढूँढता,

पुलकित सतरंगी संसार ढूँढता,

स्वप्निल नयन वह द्वार ढूँढता;

जहाँ मिल सके कोई समाधान,

अपनी सार्थकता का प्रमाण।

कुछ क्षण ऋणात्मक विवाद के,

अनिश्चितता के और प्रमाद के,

भय के, पलायन के, अवसाद के,

बल मिले तभी तेरे प्रसाद के;

सहज और रचनात्मक मन हो,

लिप्सा हीन, सृजन रत जन हो।

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