
ले मुझे क्षितिज के पार चलो,
सखा, मान इसे उपकार चलो,
पर चलो, क्षितिज के पार चलो।
विवेक असंकुचित, चित्त उदार हों,
उन्मुक्त गगन हो, खुले द्वार हों,
नीतियाँ सांझी, न्याय सुलभ हो,
मनुज भेद-हीन एक प्रकार हों।
चेतना सामूहिक और विशाल हो,
शीष हों उन्नत, प्रशस्त भाल हों,
जिज्ञासा, ज्ञान और अन्वेषण,
मौलिक संचालक, प्रत्येक काल हों।
होगा कहीं तो यह संसार, चलो।
ले मुझे क्षितिज के पार चलो।
जहाँ ज्ञान मुक्त, स्नेह मुक्त हो,
आत्मा सबकी सदेह मुक्त हो,
कलुष धुले नयनो के जल से,
मानवता सरल, संदेह मुक्त हो।
धर्म करे समता को धारण,
एक दूसरे के सम्मान का वरण,
गणना महत्व और लघुता के किंचित,
दूषित कर पाये न आचरण।
सदा हो मर्यादित व्यवहार, चलो।
ले मुझे क्षितिज के पार चलो।
दृष्टि किसीकी हमें ना तौले,
बरबस आवरण कभी ना खोले,
वाणी मात्र संवेदना का वाहक,
आघात, आक्षेप में कोई ना बोले।
बहे जो आँसू, मुझको रोने दे,
मैं जिस करवट चाहूँ सोने दे,
नियम जग के सब स्वीकार्य मुझे,
बस अपने जैसा मुझको होने दे।
बिताऊँ प्रहर वहाँ दो-चार, चलो।
ले मुझे क्षितिज के पार चलो।
गोधूलि की रक्तिम बेला में,
जिज्ञासा में नहीं अकेला मैं,
क्या है उद्देश्य जीवन का कोई,
या भीड़ मात्र और मेला मै?
उत्तर मुझे मिले न मिले,
दो कदम तो हम उस ओर चलें,
जीवन की मौलिक जिज्ञासा को,
इतना सम्मान तो दे हम लें।
करने यह सपना साकार, चलो।
ले मुझे क्षितिज के पार चलो।
सर्जन के हर प्रयास तुम्हीं से,
नव निर्माण का विश्वास तुम्हीं से,
सखा, वेदना सारी झेल मैं लूंगा,
होऊँ समर्थ यह आस तुम्हीं से।
माना ब्रह्मांड का भार है तुम पर,
सकल सृष्टी व्यापार है तुम पर,
सखा, सविनय एक निवेदन तुमसे,
कि धन्य होऊँ मैं यह जीवन जी कर।
रख कुछ मेरे कंधों पर भार, चलो।
ले मुझे क्षितिज के पार चलो।