
उनके लिये सब कुछ बदल जाने के पहले,
उनके सागर में समाने से पहले,
कहा नदी ने, अपनी बूंदों से,
शेष हो रहा है एक खण्ड काल का,
भृकुटी बदल रही है समय के भाल का,
परंतु, अपना रूप और आकार खोने पर
कभी नहीं रोना,
और अपना अस्तित्व, अपना इतिहास
कभी मत खोना।
यह एक प्रवाह है,
निरंतरता का निर्वाह है,
यहाँ कुछ भी समाप्त नहीं होता;
परिवर्तन का स्वागत कर,
उत्सव मना कि जिया जी भर,
पाये को छोड़े बिन, नया कुछ प्राप्त नहीं होता।
जिन राहों से तुम गुजरे हो,
जहाँ चले और जहाँ ठहरे हो,
है उन सब की स्मृति तेरे मन में;
ध्यान जिनका भी तेरे प्रवाह ने खींचा,
जिन पौधों को तुमने सींचा,
है सबकी उपस्थिति तेरे मन में।
सुगंध-सुवास उन सब रातों का,
रहस्य-रोमांच उन सब बातों का,
तेरे ही हैं, बस तेरे हैं;
वह राग भोर के, दुपहर की चुप्पी,
साँझ की नटखट लूका-छुपी,
तेरे, जिये हर साँझ-सवेरे हैं।
दौड़ समय का, जीवन स्पंदन,
ऋतु परिवर्तन, प्रकृति का नर्तन,
प्रकाश पुंज और टिमटिम तारे;
हरित पत्र पर मधुर-सी फिसलन,
भीषण प्रपातों का भयावह गर्जन,
सदा रहेंगे बस तेरी निधि सारे।
छुआ जिसे वह हर कण तेरा,
जिया जो तुमने, हर क्षण तेरा,
तेरा, तेरे हर रंग रूप में;
तुम ही साधक, तुम ही चिंतन,
तुम अध्येता, तुम ही अध्ययन,
हर सौंदर्य में, और विद्रूप में।
आशंकित, चिंतित खड़ा पार्श्व में,
सुन संवाद, था अविश्वास में,
यह क्या कुछ मुझे नदी ने कह दिया?
सागर में समा जाना स्वत:,
है नियति हर बूंद की अंतत:,
फिर भी हर बूंद ने जीवन जिया।
नदी संघर्ष रत मानव जाति,
और हम मानव बूंद की भाँति,
वह कहती वत्स – तुम अक्षय हो;
जन्म संयोग, मृत्यु है नियति,
पर अंत के निश्चित होने पर भी,
जिजीविषा अक्षुण्ण, जीवन की जय हो।
कोई व्यापक उद्देश्य, या मात्र यंत्रवत,
हम चेतन कर्ता, या भवितव्य नियत,
प्रश्न नहीं यह भी आधारभूत है;
जन्म और मृत्यु के बीच का सारा,
समय, चेतना, आकाश हमारा,
छोटी नहीं, यह निधि अकूत है।
यदि नियति सृष्टी निर्धारित, तब भी,
रहे जो हम अपने जीवन जी,
उसके कारक और रचयिता हम हैं;
दी विधि ने इतनी स्वतंत्रता,
दैवत्व का एक निजी हिस्सा,
कि अपने ब्रह्मांड के नियंता हम हैं।