स्वप्न लोक

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दिवस के अवसान पर थक हार कर,

असम्भव-सी लगती बाधाओं को पार कर,

भूमि पर श्रम क्लांत गात धर,

विश्रांति पर अपना अधिकार मान कर,

अज्ञात के संसार में प्रवेश के क्षण,

क्या कहता है मन?

ले चल,

मुझे उस चिर नवीन संसार में,

जहाँ सबकुछ विलक्षण: आकार में, व्यवहार में,

जहाँ आदि नहीं होता, अंत नहीं होता,

श्रम का ग्रीष्म और विश्राम का बसंत नहीं होता,

ऊपर नहीं होता नीचे नहीं होता,

कोई कभी आगे या पीछे नहीं होता,

रंग तो होते असंख्य, भेद नहीं होता,

क्रमिक अध्याय और अनुच्छेद नहीं होता,

जीवन अनुबंधों का दास नहीं होता,

दूरी से मन का विश्वास नहीं खोता,

उस पार से भी लौट आ सकता है मन,

जीवन राग फिरसे गा सकता है मन।

संभावनाएँ कभी नहीं चुकती,

प्रयास कभी रुकता नहीं है।

असंभव कुछ मान कर मन,

निष्क्रियता को झुकता नहीं है।

समय को छलना,

समय के समानांतर और विपरीत चलना,

नन्हे पाँवों से दौड़ वापस बचपन में चले जाना,

और भूत को फिर से पाना, भविष्य में ढलना,

होता है उसी भाँति ही सरल,

जैसे समय का चलना हर क्षण, हर पल।

हर कुछ असीम, अनावृत, अचिंत्य,

एक साथ भयावह और ललित।

आह्लाद और विभीषिका में एक सा,

रहस्य में छिपा हुआ किसलय कुसुमित।

समेटे असंख्य संभावनाओं को

एक बिंदु में संजोकर,

छिपा मेरे मन में

 सिर्फ मेरा होकर।

ले चल,

मुझे ऐसी दुनियाँ में ले चल।

दे उस संसार में कुछ पल,

कुछ इस तरह,

जिसका किसी को हिसाब नही देना हो,

जिसका खुद को भी जवाब नहीं देना हो,

जो खुशियों का मोल माँगता नहीं हो,

हर पल हमें तौलता नहीं हो,

रहने दे हमें कायदों से परे,

लीक पर चलने को बोलता नहीं हो।

फिर मुझे वापस रख देना,

इस ‘जागृति’ के संसार में।

फिर ले आना मुझे भाव से व्यवहार में,

अनिश्चितता से ‘अनुसार’ में,

और अनियंत्रित स्वप्नलोक से,

नियोजित संस्कार में।

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