
पराजित होना पराक्रम का,
विफल होना श्रम का,
विलुप्त होना प्रत्यक्ष का,
और
टूट कर बिखरना शाश्वत क्रम का,
देखा है कई बार।
पर क्या कभी जाता व्यर्थ,
सजल नयन से गिरता अश्रु धार?
कुछ तो पिघलता है, अश्रु के बनने के पहले,
कुछ तो मचलता है. इसके बहने के पहले,
कुछ कलुष तो धुलता है, इसकी प्रवाह से धमनियों में,
कोई बांध तो टूटता है इसके छलकने के पहले,
कोई चिन्ह छोड़ता जाता है जहाँ-जहाँ यह चले।
कलुष को धो कर देता है शुचिता,
संकीर्णताओं को प्रसार देता,
उन्मुक्त करता प्रवाह को,
संवेदनाओं को देता है आकार,
नमी जीवन के मरुस्थल को और
उष्मा का, सुषुप्त शिथिलता में, करता है संचार।
धुँधली, आड़ी-तिरछी रेखाएँ जो छोड़ जाता है,
उससे कितने जीवन की दिशाएँ पुनर्परिभाषित होती हैं,
कितने निषेध, कितने आमंत्रण अपने में छिपाये यह मोती है।