
चतुर्दिक जड़ता का विस्तार,
सघन नीरवता और अंधकार,
चेतना के अंतिम गह्वर में,
प्रस्फुटित हो अंतिम प्रहर में,
गहरे कहीं प्राणों में संवेदनाएँ उग पड़ी,
सस्मित अर्थपूर्णता थी पार्श्व खड़ी।
दूर नहीं था फिर क्षितिज पर,
धरे लालिमा ललाट धर भास्कर,
निर्मल भोर के प्रकाश-सा ज्ञान,
हुआ उदित बन एक चिर सहचर,
उदित संवेदना से ज्ञान तक की पगडंडी,
सामूहिक मानव चेतना की पहली कड़ी।
जगा विवेक ज्ञान से उग कर,
ज्यों उठा सूर्य नभ में कुछ ऊपर,
फिर उसकी उष्मा प्राणों में भर,
मानवता की भाषा आयी उभर।
सकलता, उन्मुक्तता, प्रेरणा कर्म की,
आधार बनी आध्यात्म की, धर्म की।
द्वंद्व, आलोचना, विरोधाभास,
प्रश्न, प्रतिकार, निजता के अभ्यास,
सबके सब आड़ोलन मन के,
पूर्णता के विग्रह, संधि-समास।
उद्यम, कीर्ति, पराक्रम, प्रेम, रुदन और हास,
संलग्न दो ही रज्जु से, संवेदना और विश्वास।