
अमरत्व के दर्शन,
सृष्टि के उद्गम की सोच,
अभी रहने दो।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष,
ज्ञान सभी रहने दो,
अभी मुझे तुम कर्म दे दो।
सतयुग और परलोक रख लो,
प्रगति का सद-धर्म दे दो।
बहुत भूख है करनी ठंढी,
फसल बहुत-से बोने हैं,
आँसू की कालिख बहुत-से
बच्चों के मुँह से धोने हैं।
रोक सम्मोहन सपनों का,
विष, ताप सहे वह चर्म दे दो।
सतयुग और परलोक रख लो,
प्रगति का सद-धर्म दे दो।
मै ने देखे अंधकूप हैं,
और उनमें बसते जीवन को,
भावशून्यता उनकी करती,
अंधकारमय इस मन को।
रख लालिमा भोर-साँझ की,
जल दीप बनूँ, वह मर्म दे दो।
सतयुग और परलोक रख लो,
प्रगति का सद-धर्म दे दो।
सर के ऊपर जगह नहीं है,
झुकना शायद जरूरी है,
पर आकाश ज्ञान नही हो,
ऐसी क्या मजबूरी है?
ऊंचा छत और आकाश बनूँ,
सर कुछ उठें मुझसे ऐसे कुछ सत्कर्म दे दो।
सतयुग और परलोक रख लो,
प्रगति का सद-धर्म दे दो।
बिन आँसू के हँसती आँखें,
सहज मान से उन्नत शीष,
हर कोने में दीप जले हों,
हर मन ईश्वर का आशीष।
फिर मुझे लालित्य दो,
रस-रंग दो, जगत-धर्म दे दो।
अभी,
सतयुग और परलोक रख लो,
प्रगति का सद-धर्म दे दो।
बहुत खुशी हुई कि आपका पेज किसी प्रकार पढ़ने को मिला। उत्कृष्ट लेखन।
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