शौर्य की महिमा न कम हो

white seagull flying on sky
Photo by Abhishek on Pexels.com

कुटुम्ब है बसुधा, मूल भावना,

उन्मुक्त सृष्टि है सबका आंगन,

अदृश्य, परंतु एक सूत्रता में,

बँधे हुए हैं हर जड़ चेतन,,

उचित है कि हर हृदय में

भाव करुणा का प्रथम हो।

पर, शौर्य की महिमा न कम हो।

 

जगत व्यापार के नियम सरल,

नीचे ही पहले भरता जल,

अस्तित्व सदैव सापेक्ष सबल।

अपने अस्तित्व की रक्षा को

अनिवार्य है कि हर कोई सक्षम हो।

शौर्य की महिमा न कम हो।

 

विकृति में, श्रेष्ठता का विचार यदि,

करे किसी पर हीनता का प्रहार यदि,

धृष्ट स्वछंदता बन जाये अनाचार यदि,

वांछित है सामर्थ्य प्रतिकार का,

परिस्थिति चाहे जितनी विषम हो।

शौर्य की महिमा न कम हो।

 

प्रकृति भले विकराल हो चले,

दसों दिशाएँ लाल हो चले,

मानव उन्नत भाल हो चले,

यही दृढ़ता, ऐसी शक्ति सदैव हो,

ऐसी ही प्रार्थना मन हरदम हो,

शौर्य की महिमा न कम हो।

 

 

 

करुणा पहली किरण भोर की,

पथ सत्कर्मों के ओर की,

भ्रम जाल के सारे बंध तोड़ती,

पर शक्ति नहीं तो करुणा अशक्त है,

उचित कि ऊर्जा का स्थान अहम हो।

शौर्य की महिमा न कम हो।

 

बल न कभी भी कर पाये अनहित,

लक्ष्य, न कोई कभी हो शोषित,

इतिहास करे ना किसी को बंचित,

स्वाभिमान के संग भ्रातृत्व का,

हर हृदय में स्थान परम हो।

शौर्य की महिमा न कम हो।

सुख-दुख, खुशी

dawn sunset beach woman
Photo by Jill Wellington on Pexels.com

सुख, कहाँ हैं उद्गम श्रोत तुम्हारे?

दुख, विसर्जित हो जाते कहाँ रे?

कहाँ हैं तुम दोनों के बीज,

कौन-सी है वह चीज,

तुम उगते रहते जिसके सहारे?

 

मन में धीरे-धीरे पनपते,

या किसी कोने में सोये रहते,

और जगते ही आ पाश में गहते?

 

तुम भाव हो, स्थिति हो,

जड़ हो, अवचेतन या चेतन हो,

दालान पर ठहरे अतिथि हो,

या अपना कोई बैठे घर-आंगन हो?

 

क्या विचरते व्योम में हो,

आते जब कोई बुलाता है,

या और कोई नियामक है जो,

किसी नियम पर तुम्हे चलाता है?

 

क्या ध्येय होगा किसी का,

इस अर्थहीन संचालन में,

आशीष के संग कोई विधाता,

पीड़ा क्यों देगा पालन में?

 

मन के अंदर यदि पनपते,

सुख सबका ही वांछित होगा,

किन्तु औरों से अधिक चाहना,

क्या करता दुख को निर्मित होगा?

 

मन अपने दुख को क्यों प्रश्रय देगा,

तो क्या हम औरों के लिये इन्हें उगाते,

अपने मन में पाल पोष,

हैं भाव तंतु से उन तक पहुँचाते?

 

है एक और तथ्य आधारभूत,

सुख और खुशी में फर्क बहुत,

हम जान जान भी नही मानते,

जनते प्रपंच पीड़ा के अद्भुत।

 

सुख, तुलना, जब आधार है तेरा,

बसते मुझमें, रह औरों के अधीन,

तुम सीमित, बस दुख के हो पूरक,

खुशी निर्पेक्ष सदा, और नित्य नवीन।

 

फिर भी मन में बसती ललक पुकारे,

सुख, कहाँ हैं उद्गम श्रोत तुम्हारे?

प्यास में कमी ना रहे

white clouds
Photo by Luis Quintero on Pexels.com

हासिल चाहे जो भी हो, तलाश में कमी ना रहे।

क्या मिला ये सवाल न हो, प्यास में कमी ना रहे।

रोशनी को जलने का, हुनर सीख कुछ इस तरह,

काली स्याह रातों में भी कभी, रूह गमगीं ना रहे।

तुम बताओ किस तरह जाओगे मुझको छोड़ कर,

ताकि जिन्दगी ये ना कहे, साथ मेरे तुम ही ना रहे।

जीत का जश्न ठहर अभी, फिर एक बार जी लेने दे,

वो तनहाइयां, वो करवटें, वो इंतजार के रतजगे।

भूलने सब कुछ लगा हूँ सिवाय अनगढ बचपन के,

वह छलक छलक गिरती खुशी, और बरसते कहकहे।

इंसानियत पत्थर पर लकीरों से ऊपर की चीज है,

थोड़ा-सा तो हिलो डुलो कि मुद्दआ वहीं ना रहे।

हर महफिल अच्छी लगती,जहाँ मिलते यार पुराने हों,

खयालात कुछ नये नये हों, और कुछ किस्से अनसुने।

बस एक चाहत मे बदन पे ता-उम्र जख्म खाते रहे,

कि मुड़ के जो देखें कभी, तो ये रूह जख्मी ना दिखे।

चांद को मुट्ठी में पकड़ना तेरी फितरत हो मगर,

सितारों की चाह में न हो कि, पैर तले जमीं ना रहे।

अर्थ भरना चाहता हूँ

green mountain with river in the middle
Photo by Matteo Badini on Pexels.com

बहती धारा सूक्ष्म-सा मैं बह रहा हूँ,

सोचता क्या हूँ अगर मैं तुझे बताऊँ ,

जीवन एक प्रवाह है मैं मानता हूँ,

पर तटों को आकार देना जानता हूँ।

चेतना तुमने दी,

आभार तुम्हारा,

मुझको रचना पूर्णतः अधिकार तुम्हारा,

अब अपने अस्तित्व का स्पर्श करना चाहता हूँ।

अपने होने के भाव में कुछ अर्थ भरना चाहता हूँ।

 

स्नेह दो, तुम प्यार दो,

मुझ पर जीवन का भार दो,

प्रार्थना करता रहूँगा कि

गहराई और विस्तार दो।

राह तुम दिखलाना मगर,

अभिमान इसको मत समझ,

गंतव्य भी और राह भी मैं अपनी पकड़ना चाहता हूँ।

अपने होने के भाव में कुछ अर्थ भरना चाहता हूँ।

 

तेरा सब कुछ, तुझ को अर्पण,

तेरा ऋणी मैं हर पल हर क्षण,

पर कुछेक भाव जो मुझमें पनपे,

कह सकूँ उसे मैं अपना सर्जन।

नम्रता से पर नहीं दीनता से,

समर्पण भाव से पर नहीं हीनता से,

बीज, अंकुर और कुछ लताएँ अपने नाम करना चाहता हूँ।

अपने होने के भाव में कुछ अर्थ भरना चाहता हूँ।

 

सारथी तुम हो, रहोगे,

जिस दिशा रथ मोड़ दोगे,

उसी जगह रक्त सिंचित कर,

भाव बीज बोने तो दोगे?

बस इतने से ही मेरी कथा,

पा जायेगी वांछित अनित्यता,

वर दो,

तेरी सृष्टि के सौन्दर्य का विस्तार करना चाहता हूँ।

अपने होने के भाव में कुछ अर्थ भरना चाहता हूँ।

जिंदा हो जाता हूँ

brown and grey eagle
Photo by Pixabay on Pexels.com

कई बार जुगनू, कई बार तितली,

और कई बार परिंदा हो जाता हूँ ।

थका हारा होकर भी हर दिन,

फिर से जिंदा हो जाता हूँ ।

 

प्राणों का हल्कापन,

साँसो का उत्प्लावन,

बहुत ऊपर से पुकारता जीवन का उन्मत्त राग,

मुझे पुकारते हैं ,

पास बुलाते हैं,

कहते रहते हैं  मुझे – अरे जाग, जाग,

उठने को, और ऊपर उठने को,

झंकृत होता है हर तार, जिंदा हो जाता हूँ।

कई बार जुगनू, कई बार तितली,

और कई बार परिंदा हो जाता हूँ ।

थका हारा होकर भी हर दिन,

फिर से जिंदा हो जाता हूँ ।

 

 

सौन्दर्य से, सत्य से,

अद्भुत से, अनित्य से,

जहाँ भी मन को विस्तार मिले,

रचना का आधार मिले,

स्वभावत: जुड़ना चाहता हूँ,

पर,

घोर एकात्मता के क्षणों में,

पूछे कोई जो मुझसे,

पंख फैला कर अपने,

पहले उड़ना चाहता हूँ।

 

उड़ना ऊपर पार गगन के,

डैनों पर अपना भार लिये,

निहारता जग को निर्लिप्त हो,

तैरता स्वच्छंद भारहीनता से।

 

यह कोई सनक नहीं,

कोरी कल्पना की पिनक नहीं,

केवल स्वच्छंदता का मोह नहीं,

कोई  मौलिक  विद्रोह नहीं।

 

इसे पागलपन कह सकते हो,

मान सको विश्वास मान लो,

जब हर कोई उड़ पायेगा,

दूर गगन से जग देखेगा,

उन्मुक्तता का स्वाद चखेगा,

तब उसमें विश्वास जगेगा,

कि जग तो सुन्दर चारों ओर है,

पीड़ा का मूल कुछ और है,

छिन ना जाये इस शंका में,

भरते सोना अपनी लंका में,

डर से कि ना कोई पैर दबा दे,

एक दूसरे का गला दबाते।

 

बहुत हवा है आसमान में

भरने को हम सब की साँसें,

फिर करता ही क्यों कुछ ऐसा हूँ ,

कि खुद से शर्मिंदा हो जाता हूँ ?

कई बार जुगनू, कई बार तितली,

और कई बार परिंदा हो जाता हूँ ।

थका हारा होकर भी हर दिन,

फिर से जिंदा हो जाता हूँ ।

जिजीविषा का मान कर

sea and sky horizon photo
Photo by Peter Brown on Pexels.com

 

मन वृथा ही शोक मत कर,

तू जिजीविषा का मान कर,

अंश तो उसका ही है तू,

उस ब्रह्म का संधान कर।

 

पूछ मत कातर हृदय हो,

आपदा मेरे ही सर क्यों,

हीन बन मत याचना कर,

भीख में सुख दे मुझे दो।

चेष्टा अधिकारों के लिये कर

शक्तिभर और प्राण भर।

मन वृथा ही शोक मत कर,

जिजीविषा का मान कर।

 

उद्देश्य यदि पर हित हो,

तो त्याग तुम्हारा बल-संबल है,

पर धारणा निषेध मात्र का,

नहीं त्याग दर्शन दुर्बल है।

मुँह मोड़ना, रण छोड़ना,

है कभी नहीं सम्मान-कर।

मन वृथा ही शोक मत कर,

जिजीविषा का मान कर।

 

जब सब कुछ प्रतीत हो अर्थ हीन,

मन संघर्ष से मुंह मोड़े,

पहचान इसे यह व्यतिक्रम है,

सत्कर्म तो जीवन से जोड़े,

अर्थ मात्र है उसी कृत्य का

जो साँसों में दे प्राण भर ।

मन वृथा ही शोक मत कर,

जिजीविषा का मान कर।

 

क्षण भर को यदि मान भी लें,

यह अंतिम सीमा है साहस की,

जो स्वयं प्रश्न चिन्ह हो जीवन पर,

वह दृष्टि नहीं है, विकृति,

मत छोड़ जा पीड़ा का गरल

विराम मत दे प्राण पर?

मन वृथा ही शोक मत कर,

जिजीविषा का मान कर।

मौसम बौरा गया

snowy terrain against mountains in back lit
Photo by ArtHouse Studio on Pexels.com

पेड़ों के संग पत्तों को भी खुलकर हँसना आ गया।

मौसम बौरा गया।

बंध टूटे,

छंद टूटे,

उन्मुक्त स्वर कोई गा गया।

मौसम बौरा गया।

 

पागलपन ऐसा ही कुछ ढूँढा हम सब करते हैं,

मिलता है तो नहीं पहचानने का,

स्वांग अकारण भरते  हैं।

जैसे रहस्य यह खुला हृदय में

बिन कारण यह जग भा गया।

मौसम बौरा गया।

 

पैर के जकड़न गौर से देखे,

पंखों के बंधन के सरीखे,

अपने बांधे गाँठ अधिक है,

अहंकार के भार  से कसते।

अक्सर बच्चों की भाँति हुलसना,

कर मन को है हरा-भरा गया।

मौसम बौरा गया।

 

पत्थर से पत्थर नहीं मापना,

बाहर छोड़ भीतर झाँकना,

पद चिन्हों के अनुगमन से उत्तम,

चाहे वह पगडंडी ही हो,

अपनी खुद की राह आंकना।

अनछुए वनों का पहला प्रशस्त पथ,

का अपना होना,

सृजन का सुख मन को छुला गया।

मौसम बौरा गया।

 

सभी अलग फिर भी समान सब,

हर सर उन्नत, करुण हृदय हों,

बाहु पराक्रम तेज भाल पर,

स्वप्न नयन में, भाव सदय हों।

शायद ऐसी सृष्टि रचने का,

लगता है अवसर आ गया।

मौसम बौरा गया।

दूर खड़े सखा मेरे

scenic view of forest during night time
Photo by Hristo Fidanov on Pexels.com

बसती मेरे जीवन की कथा में,

भाँति-भांति की उप-कथाएँ,

मित्रों की, परिजनों की,

सम्बन्धों की, समीकरणों की,

जीवंत उल्लास और नि:शक्त विवशताएँ,

निश्छल आसक्ति, मोह की काई,

परिदग्ध स्नेह और शीतल लांछनाएँ।

 

बहुत प्रिय हैं सब के सब,

निधि हैं मेरे,

मेरे जीवन के छंद,

मेरे इतिहास के अलंकार,

मेरी शक्ति, मेरा संयम,

दुर्बलता के क्षणों के

मेरे अवलंब-आधार।

 

कहीं किसीकी सफलता ने

हीनता मुझमें भर दिया,

कहीं दूर जाता देख मुझे

मित्रों ने स्नेह पाश में जकड़ लिया।

 

कभी किसी के सहज एकांत को

समझ अकेलापन झकझोर दिया,

कभी किसी ने देख भीड़ में,

निपट अकेला देख छोड़ दिया।

 

कई बार कंधे ढूँढे तो

पत्थर-से स्तम्भ आ खड़े हुए,

और मूल्यांकन के चौपड़ में

हम क्षत-विक्षत थे पड़े हुए।

 

इतना रंग-विरंगा जीवन,

मधुर, कटु और सुरम्य मनोहर,

इनके बदले कुछ भी ना लूँ,

कृतज्ञ हूँ ,

जैसे जिया, मैं जी कर।

 

एक अलग-सा भाव कहीं है,

कुछ कहने को कहता है,

वहाँ भावनाओं से, और संवेदनाओं से,

ऊपर एक गंध और स्वाद बसता है।

 

संग बहुत पहले छूटा था,

साथ बहुत छोटा –सा है,

उम्मीदों अपेक्षा का

ना कोई तंतु हमें बांधता है।

 

जब मिलते हैं मुझे न जाने,

ऐसा कुछ क्यों लगता है,

यही निजता मैं  ढूंढ रहा था,

नहीं जानता,

इसको जग क्या कहता है?

 

उस्थिति जहाँ ना  भार लगे,

बस संग होने में ही प्यार लगे,

स्तर का अंतर  अर्थहीन,

सहज सारा संसार लगे।

 

शब्द चयन की बात नहीं  हो,

घात नहीं  प्रतिघात नहीं हो,

जीत-हार,

नही कोई करता हो अंकित,

नहीं आवरण सम्मुख जब हों,

पीछे पीठ  नहीं मन हो शंकित।

 

परिचय मौलिक सम्बन्धों से,

सम्बोधन सखा तुल्य, हर्षित हो,

आभास न हो अपेक्षाओं का,

करता वातावरण दूषित हो।

 

उस दुनियाँ,

जहाँ स्वीकार सरल है,

मैं खुद जैसा रह पाता हूँ,

फिर भी मोह पाश में बँध,

वहाँ दौड़ नही आ जाता हूँ ?

 

सही-गलत अब आप बतायें,

बस इतना मैं कह पाऊंगा,

अपनी लोलुपता से कलुषित,

इस निधि को ना करना चाहूँगा।

नुपुर का  संगीत

low angle view of spiral staircase against black background
Photo by Pixabay on Pexels.com

काल तेरे का नुपुर का संगीत सुनना चाहता हूँ।

सुनी तेरी आहटें,

और बदलती करवटें,

कर्णभेदी अट्टहास,

मौन और परिहास।

सुन लिये गर्जन हैं तेरे ,

निर्घोष वज्र प्रहार के,

चक्र जीवन के न चलते,

बिना क्षति, संहार के,

मानता हूँ पर, क्षमा दो,

मैं अपनी नयी एक राह चुनना चाहता हूँ ।

काल तेरे का नुपुर का संगीत सुनना चाहता हूँ।

 

तुझ में विलीन हो जन्मा तुझसे ही

कहूँ सखा-तुल्य, यह दम्भ नहीं,

मरण-जन्म का आवर्त सनातन,

पर मृत्यु मिटा सका कभी जीवन के स्तम्भ नहीं।

 

अनंत है तेरा भाल पटल,

और असंख्य जीवन वृत्त मेरे,

कल्पना किसी बैर की तुझसे,

नहीं स्वप्न में ना चित्त मेरे,

हठ फिर भी ना त्याग सकता कि,

उन्मुक्त हो मैं अपना स्वप्न बुनना चाहता हूँ।

काल तेरे का नुपुर का संगीत सुनना चाहता हूँ।

 

काँपती मेरी भुजाएँ,

पर नहीं होना व्यथित तनिक तुम,

तेरी सीमाओं से जाकर ऊपर,

संधान नहीं, तो क्यों हैं हम।

तेरा तांडव माप दण्ड हो मेरा,

नयन भीति से झुके नहीं।

हों सारे प्रलय स्वीकार्य हमें

और  प्रगति रथ रूके नहीं,

नतमस्तक सम्मुख तेरे,

पर स्वाभिमान से अस्तित्व के अर्थ गुनना चाहता हूँ।

काल तेरे का नुपुर का संगीत सुनना चाहता हूँ।

यायावर घर नहीं गया

silhouette of man during nighttime
Photo by brenoanp on Pexels.com

गहन तिमिर,

सारी दिशाएँ मूक, स्थिर,

मात्र तारा मंडल का प्रकाश,

नहीं कोई स्पंदन,

नहीं कोई गति,

जैसे विश्राम में लेटी नियति,

निविड़ नीरवता पर तरंगें बनाती

बस अपनी ही साँस।

अकस्मात सिहर उठा मन,

मंत्र मुग्ध करता

अंदर ही अंदर कुछ बरस गया,

प्रकृति के इस

चित्रपट पर रच बस गया।

फिर एक अस्फुट स्वर ने

कानों मे कुछ बता दिया।

यायावर को उसके घर का पता दिया।

सम्मोहित यायावर ठगा हुआ-सा खड़ा रहा,

घर का पता मिलने पर भी

घर नहीं गया।

स्वच्छंदता के झीने आकर्षण में

बंधा रहा।

 

सघन निशा,

सूचि भेद्य अंधकार चारों दिशा,

उल्का, ग्रह, नक्षत्र,

गतिमान यथावत,

जीवन ऊर्जा अदृश्य, पर मूर्तिमान,

अणु-अणु का कम्पन,

स्पर्ष करता अनंत तक फैला वर्तमान।

हठात,

चेतना के एक तरंग का संचार,

कर गया जड़ता पर सूक्ष्म प्रहार,

जीवन की उष्मा सजग हुई,

और सम्मोहन पिघल गया,

स्वच्छंदता का मोह कुछ क्षीण हुआ,

जब मुक्ति बोध ने हाथ गहा।

यायावर ने देखा घर अपना,

पर नहीं गया।

इस बार भी,

यायावर घर नहीं गया।

अब सकल विश्व था घर उसका,

जोड़े संवेदना के तंतु जगत से,

पर, ठहर कहीं पर नहीं गया।

यायावर घर नहीं गया।