
प्रकृति, पुरुष,
शक्ति, संकल्प,
पृथ्वी, आकाश,
चेतना, पदार्थ;
उद्देश्य, समर्पण,
चेतना, स्पंदन,
परहित, स्वार्थ;
हे अज्ञेय, हे रचनाकार,
तुम जो भी हो,
या सब के सब,
मेरे जनक और जननी,
मेरी अस्थि, मज्जा और प्राण के निर्माता,
सृष्टि के नियंत्रक, सारे जगत के विधाता,
तेरे पास तो विकल्प रहे होंगे,
फिर तुमने मुझे क्यों बनाया,
जैसा मैं अपने आपको पाता हूँ?
क्यों दिये ऐसे अंत: करण और आवरण,
जिनमें उलझकर मैं रह जाता हूँ ।
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तुमने मुझे इतना दुर्बल क्यों बनाया,
जिसका जीवन है संभव,
तुम्हारे विस्तार की इतनी छोटी परिधि में,
कि मुझे अपना होना,
तेरी रचना कम,
एक संभावनाओं की दुर्घटना अधिक लगता है,
और मन में अनायास अवांछित होने का भाव जगता है ।
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तुमने मेरे मन को इतना असहाय क्यों बनाया,
कि मुझे सदा एक अवलंब चाहिये,
समूह की सुरक्षा और किसी का संग चाहिये,
क्यों बनाया इतने संशयों से भरा,
अपने ही प्रश्नों के पंक में पड़ा,
कि हृदय और मस्तिष्क एक दूसरे से भ्रमित हो जाते हैं,
अपने पर ही सहजता से विश्वास नहीं कर पाते हैं ।
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परिणाम यह कि जीवन का अर्थ संकुचित हो जाता है,
सब कुछ निरंतरता को बचाये रखने पर सीमित हो जाता है ।
आकांक्षा छूट जाती है,
ललक छूट जाती है,
रंग छूट जाते हैं,
महक छूट जाती है,
जो बचा रहता है,
बस प्राण से लिपटी चेतना,
और कुछ नहीं कर पाने की वेदना ।
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फिर जीवन के क्षेत्र में,
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष,
आरम्भ हो जाती है एक स्पर्धा,
और अधिक बल के संचय की,
सुरक्षा के आश्वासन के संग्रह की ।
कहने को तो कहते इसे पराक्रम है,
पर वास्तव में होता है लघुता का आभास,
जो कौंधता रहता है मन में,
जब भी करता हूँ उन्नयन के प्रयास,
और उस के ऊपर विफलताओं का तिरस्कार,
जो बेध देते हैं उन कवचों के भी आर-पार,
जो हमें मिले हैं विरासत में,
तुम्हारी थाती कह कर,
पर वह हमें आघातों से नहीं बचाता,
मात्र हमारी पीड़ा को चिरजीवी बनाता है ।
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तुमने मुझे इतना अकुशल क्यों बनाया,
कि अपनी गति से, अपने भार से,
अपनी दक्षता से, अपने आकार से,
सदा अपूर्ण-से लगते अपने विचार से,
उचित-अनुचित के बीच जूझते अनगढ़ व्यवहार से,
सृष्टि में अपनी जगह ढूँढते अपनी याचना के अंधकार से,
धमनियों अनियंत्रित रक्त के संचार से,
सदैव मिला मुझे संकोच, अवरोध और अर्थहीनता,
मात्र लघुता को बोध फिर भी सह लेता,
पर यह तो थी,
अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाती साक्षात अपूर्णता ।
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यहीं समाप्त नहीं हुई तेरी माया,
यह कैसा छल कि तुमने इस मरु में भी,
जिज्ञासा के बीज बोये,
कल्पना के उर्वरक दे,
स्वप्निल नयनों के जल से सिंच-सींच कर,
आकांक्षाओं का नया एक संसार बसाया ।
जैसे एक अकिंचन को,
अलकापुरी की झलक दिखला कर,
कदाचित तुमने अपना मन बहलाया ।
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एक और मन की व्यथा कहूँ,
तुम मुझे छोड़ गये यहाँ,
और अब मिलते भी नहीं,
पुकारता हूँ तो बस मुस्कुराते हो,
कुछ कहते नहीं,
अस्फुट-सा कुछ फुसफुसाते हो,
जब भी कुछ पूछना चाहता हूँ तुझसे,
मुझे निपट अकेला छोड़ कर,
किसी न किसी छल से,
अपने होने का विश्वास दिला, बहलाते हो ।
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अंतिम प्रश्न,
सच कहो,
तुम मेरी दुर्बलता से अधिक दुखी हो,
या इस बात से कि मैं अपने को,
और सबल नहीं बना पाया?
सच बताना जब ऐसे प्रयासों में,
जब मैं अपनी सीमाओं को लाँघता हूँ,
और तोड़ डालता हूँ वह सारे नियम,
जो तुम्हारे नाम पर मुझे बताये गये हैं,
तो तुम्हें खुशी नहीं होती क्या?
सदा की तरह,
तुमसे इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं आता,
पर तुम्हारा मौन है मुझे तंद्रा से सहला कर जगाता,
तो लगता है,
कि मैं अब तुम्हें समझने लगा हूँ,
नींद से जगने लगा हूँ ।
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अब जो मेरा चित्त जगा है,
तो मुझे विश्वास होने लगा है,
कि तुम व्यथित होते हो,
देख अपनी इस रचना को,
आचारों और विचारों के,
प्रतीकों और व्यवहारों के घेरों में घिरे हुए,
और लगभग स्वेच्छा से,
लीकों पर गोल-गोल चलते हुए ।
ऐसे में कई बार,
निपट सहजता में,
अनायास जो आंसू मेरी आँखों में आ जाया करते थे,
जिन्हें मैं समझ नहीं पाया था,
सच बतलाना, तेरे ही थे ना?
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तो अब जो मैं तुम्हें चुनौती देता
कुछ कह जाता हूँ,
स्वयम् को सम्हालता नहीं,
अतिरेकों में बह जाता हूँ,
जिज्ञासा को तुम्हारे अस्तित्व की सीमा तक ले जाता हूँ,
कल्पनाओं में एक समानांतर सृष्टि बनाता हूँ,
जानना चाहता हूँ वह सारे रहस्य जिससे तुमने संसार बनाया,
और वह भी जिससे तुमने अपना अस्तित्व पाया,
तो तुम्हें प्रसन्नता होती है ना ?
भले ही सुख-दुख से परे हो तुम,
अपनी रचना की इस सफलता पर तुम्हें,
हर्ष तो होता होगा?
तुमने जो अपना एक अंश दिया था मानव को,
इस तथ्य पर गर्व तो होता होगा?
जैसे हमारे होते हैं देवों के पर्व,
तुम्हारा भी मानव पर्व तो होता होगा?