
अपना समर मैं जूझ रहा था,
सरल जीवन हो अबूझ रहा था,
हर दुविधा में कातर हो गहा तुझे,
और समय निहारता रहा मुझे ।
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कभी आश्चर्यचकित नयन से,
कभी ऊबे, थके-से मन से,
कभी निष्पक्ष दर्शक बन के,
पर सदैव ही बड़े जतन से ,
जान न पाया क्यों करता वह ऐसा,
मन ही मन विचारता रहा तुझे ।
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मैं ने समय को जुड़ते देखा,
सीधे चलते, मुड़ते देखा,
कभी-कभी श्रम से लथपथ,
और अगले पल फिर उड़ते देखा,
क्यों समय की गति है मायावी?
विकल हो पुकारता रहा तुझे ।
और समय निहारता रहा मुझे ।
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समय मुझसे होकर बीता,
या मैं समय में होकर बीता,
जब भी बैठा करने आकलन,
दर्शन हारा और संशय जीता ।
हर भ्रम में, बालक अबोध-सा,
बस मानता, स्वीकारता रहा तुझे ।
और समय निहारता रहा मुझे ।
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अनंत सृष्टि का एक सूक्ष्म अंग मैं,
व्यापक काल का क्षणिक तरंग मैं,
जैसे कोई अस्तित्वहीन स्पंदन,
अर्थ तभी, जब सब के संग मैं,
सह-जीवन मुझको प्रिय है, किंतु,
‘क्या उद्देश्य?’, पुकारता रहा तुझे ।
और समय निहारता रहा मुझे ।
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एक दूसरे को देख रहे थे,
सहसा हम एक हो गये थे,
अब मेरा समय मुझमें सन्निहित,
जीवन के अब अर्थ नये थे,
उलझे सूत्र अब सुलझ रहे थे,
कृतज्ञ मैं विचारता रहा तुझे ।
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एक समय, जो मुझमें जनमा,
पला, बढा, जीवन बन पनपा,
मेरे संग हो जायेगा विलुप्त जो,
वह मेरा, और मैं अंश प्रवाह का,
अब अस्तित्व नहीं था प्रश्न चिन्ह,
तेरे संकेतों में तारता रहा तुझे ।
और समय निहारता रहा मुझे ।
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समय निर्पेक्ष, अनादि, अशेष,
सूक्ष्म मैं इसका एक अंग विशेष,
एक वहिर्जगत का विस्तार अनंत,
एक अथाह अंतर्मन का अंत:प्रदेश,
अंतर के आलोक में भ्रम टूट गये,
पुलकित मन, सारथी कहा तुझे ।
और समय निहारता रहा मुझे ।