उद्विग्न मन

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जीवन के सागर में डूबते-उतराते,

मन उगती रही एक ही इच्छा,

कितना सुंदर होता जीवन, यदि तैर पाते ।

प्रश्न जीवन की रक्षा का था,

नहीं था कुछ भी दूर का दिखता,

बस यहीं तक थी सोच की परिधि,

प्राप्त हो चाहे यह जिस विधि ।

.

जिजीविषा में शक्ति अपार,

मन केंद्रित, अंग-अंग सक्रिय,

तैरने का स्वप्न हुआ साकार,

अरे, पर यह क्या?

न किसी का आभार,

न अपनी क्षमता पर गर्व का विचार,

आगे कुछ अलग ही हो गया,

इस प्राप्ति का सारा आकर्षण खो गया,

तैरना इतना सहज लगने लगा,

कि अर्थहीन-सा हो गया ।

.

असंगत लगने लगा कि जीने के क्रम में,

करनी पड़े व्यय सारी ऊर्जा,

मात्र तैरने के श्रम में,

कुछ पल तो हों,

विश्रांति के आनंद में समाने को,

और चेतना से अठखेलियाँ कर पाने को ।

क्यों न ऐसा सम्भव हो,

ऐसी एक युक्ति का उद्भव हो,

कि सागर पर घर हो,

जिसमें बिना श्रम तैर पाने का वर हो ।

.

संग-संग बहते, उपलाते,

शाखाओं से शुरू किया,

फिर कुछ समय बीता और मेरे पास थी नौका ।

सुरक्षा की शांति,

चित्त निर्द्वंद्व और सजग,

जल के ऊपर, पर जल से अलग,

तैरता-उपलाता,

लहरों के हिचकोले खाता,

जीवन था बढता जाता,

पर न दिशा पर, न गति पर कोई नियंत्रण,

अनायास ही खिन्न हो उठा मन ।

.

चेतना घनीभूत हुई,

अनुभव सजाये,

भुजाओं ने सृजन किया,

और पतवार बन आये ।

गति पायी, दिशा पायी,

एक यथार्थता मन में भर आयी,

एक ठहराव आया,

सार्थक होने का मन में भाव आया,

क्षितिज पर रंग भरने लगे,

आँखों में सपने भर आये,

पतवार ने होने के नये अर्थ दिखाये ।

.

नयी ऊर्जा, नयी दृष्टि,

रहस्य-रोमांच से भरी पड़ी सृष्टि,

क्षितिज के पार का संसार,

आमंत्रण देने लगा बारम्बार,

पर मन अब और भी उद्विग्न हो चला,

अज्ञात की जिज्ञासा से भरने लगा,

प्रयोजन और उद्देश्य का अनुसंधान करने लगा,

आनंद की परिभाषा सहसा छलने लगी,

सहजता करवटें बदलने लगी,

नया है सब कुछ, पर यह क्या भला है ?

जीवन ने यह सब दे कर किया धन्य या छला है ?

मैं जीवन में पलता रहा हूँ, या जीवन मुझमें पला है ?

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