
जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते,
बहुत दूर निकल आया,
मुड़ के देखा तो बीते पल झिलमिला रहे थे,
हल्के-हल्के मुस्कुरा रहे थे,
जैसे अभी भी चल रहे हों मेरे संग ।
कुछ गुनगुना रहे थे,
ध्वनि स्पष्ट नहीं थी,
पर मुझे छू रही थी,
उनसे उठती तरंग ।
मन निर्णय नहीं कर पाता,
कि इन बंधनों को तोड़ कर निकलना,
सही गति है?
इनसे लगाव के मादक भाव आभार हैं,
या निराधार आसक्ति है?
ऐसे और भी कई जिज्ञासाएँ रहते हैं मुझको सालते ।
जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।
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जो पार किये पड़ाव हैं,
उनमें बसे जितने धूप छाँव हैं,
करते हैं परिभाषित मेरे अब तक के जीवन को,
पर उन्हें भी खूब पता है,
कि वे मात्र राह हैं, गंतव्य नहीं,
और अर्थहीन है कहना कि उनमें क्या गलत, क्या सही,
कितना कुछ ढल जाता है,
दिये गये साँचे में खुद को ढालते-ढालते ।
जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।
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सपने जो अब तक आँखों में आये हैं,
सपने जो मन में बैठे हैं, विश्वास के जाये हैं,
कभी आपस में उलझते नहीं,
बहुत अलग-अलग हैं,
चुपचाप जलते रहते हैं, कभी बुझते नहीं,
कोई विवशता नहीं कि उनमें से कुछ को चुनूँ,
या उन सब की कहानियाँ सुनूँ,
जीवन का हिस्सा बन जायेंगे सारे,
यूँ ही आँखों में पालते-पालते ।
जीवन की वास्तविकताओं को सम्हालते-सम्हालते ।
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बीते हुए को अनुभवों से तौलना,
बंद किये दरवाजों को बार-बार खोलना,
सम्बंधों को प्रगाढता से आँकना,
आने वाले कल की ओर समय के विवर से झाँकना,
कभी-कभी जीवन के अर्थपूर्ण होने की अनुभूति देते हैं,
और बाकी सारे समय में लगता है,
सारी सृष्टि कह रही है:
जी, बस जी,
यात्रा ही जीवन है,
बाकी सब छलना है,
सत्य बस चलना है,
मत पाल फिजूल के मुगालते ।