
ज्ञान, विवेक, साधना, वंदन,
देते नहीं चैतन्य, स्पंदन,
मन सूखा, मरुभूमि पड़ा था,
हो अर्थहीन पाषाण खड़ा था,
तुमने एक नया संसार दिया ।
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करुणा, तुमसे दूरी-सी थी,
‘क्यों’ की बीच दीवार खड़ी थी,
चित्त तृषित था और विकल था,
अर्थहीन लगता जगत सकल था,
तू ने छू कर दुविधा पार किया ।
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ज्ञान का अपना तेज-ताप,
तर्क का सम्मोहक विलाप,
कारण के मायावी गह्वर,
सदैव प्रश्न, शून्य थे उत्तर,
सहज एक तुमने आधार दिया ।
तुम आये तो श्रृंगार किया ।
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पौरुष भी था कुलिश कठोर,
मदमाता और संघनित घोर,
देने से अधिक था हर लेता,
उद्देश्यपूर्ण पर नहीं प्रणेता,
लक्ष्य में रस का संचार किया ।
तुम आये तो श्रृंगार किया ।
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संधान निर्मल आनंद चित्त का,
आराध्य सत्य हो और सुन्दरता,
जब मात्र इन्हीं को चुन लिया,
अभेद्य एक आवरण बुन लिया,
तुमने इस चक्रव्यूह के पार किया ।
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तृणदल पर तुहिन के कण,
छूने से पैरों में कम्पन,
अकस्मात सृष्टि जाग्रत लगी,
हृदय व्यापक संवेदना जगी,
एक स्पर्श ने उपकार किया ।
तुम आये तो श्रृंगार किया ।
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व्यग्र नयन ने नभ को छोड़,
देखे जीवन को प्रत्यक्ष, विभोर,
जुड़ने और पाने की भाषा,
अद्भुत, नवीन जीवन परिभाषा,
मन से मन का अभिसार किया ।
तुम आये तो श्रृंगार किया ।