
पूर्णता के प्रयास में,
राह में मिलते आलोक बिंदु,
मात्र मरीचिका हैं,
या संभवत:,
दिशा के सही होने के आभास हैं?
पर यदा कदा मन में कौंधता,
चकाचौंध करता,
पूर्णता का विश्वास,
प्राय: कुछ और नहीं है, छलना है?
कदाचित यही वह छद्म है,
जहाँ विवेक को सम्हलना है ।
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जब प्रतीत होता सब कुछ सही,
कहीं भी कोई कमी नहीं,
कोई ऐसी कहानी नहीं,
जो बच रही हो अनकही;
हम जड़ हो रहे होते है,
अपनी संवेदना खो रहे होते हैं ।
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घुमावदार रास्तों से चलते हुए,
मोड़ आकर्षित नहीं करें,
सिर्फ तय किये हुए दूरी की चिंता हो,
मन में केवल उस पार का सवाल हो,
मोड़ों का होना आनंद नहीं,
प्रतीत होता व्यवधान हो,
रोमांच एक बेमतलब का खयाल हो;
जीवन जिया नहीं जा रहा होता,
गुजारा जा रहा होता है,
साँसें चलती है,
मन, जड़वत सोता है ।
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अपनी पीड़ा विशाल लगे,
परपीड़ा की हृदय में अनुभूति न हो,
पर अपनी हर व्यथा के लिये,
सारी दुनियाँ को खड़ा कर रहे हों,
सवालों के घेरे में,
स्वयम् अपने दायित्व की प्रतीति न हो,
ऐसे में कब अचानक,
जीवन के अवयव बदल जाते हैं,
मन के विचार ढल जाते हैं,
अपने हित से,
औरों के अनहित की इच्छा में,
और परोपकार की भावना परपीड़न में,
और इस बदलाव का हमें पता नहीं चलता ।
ऐसे में लड़खड़ाता कदम फिर नहीं सम्हलता ।
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एकांत का सम्मोहन भी,
समूह के सकल बंधन भी,
निर्पेक्ष चिंतन के उत्तुंग शिखर,
समरसता का आस्वादन भी,
संग साथ के बंधन भी,
अस्तित्व ज्ञान का अकेलापन भी,
जब एक साथ करें आकर्षित,
लगें जटिल, पर करें सम्मोहित,
नयी जिज्ञासाएँ जगती रहें हर पल,
पुरानी होती रहें तिरोहित,
जीवन सम्पूर्णता की ओर बढ रहा होता है,
सार्थकता के सोपान चढ रहा होता है ।
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पूर्णता के प्रकाश की चकाचौंध से,
सहज है खुद को छलना,
पर जीवन है,
खुद को जला प्रकाश पाना,
और अपने ढूँढे रास्तों पर चलना ।