
एक साथ उत्प्लावित और स्तब्ध है,
कि तुम्हारा होना,
तुम्हारी अनुपस्थिति में भी उप्लब्ध है।
या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,
मुझे लगता एक समान है,
मेरा तुम्हें एक बच्चे की भाँति जकड़े रहना
तुम्हारा मुझे सदा स्वच्छंद छोड़ देना,
इसका प्रमाण है ।
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जब भी मैं ने अपनी धड़कन सुनी,
जब भी अपनी साँसों को महसूस किया,
जब भी बाहर से सिमट कर अपने अंदर जिया,
और तुम्हें प्रत्यक्ष नहीं पाया,
चौंका नहीं, निराश नहीं हुआ,
क्योंकि तुम वहाँ नहीं हो,
ऐसे विचार ने मुझे कभी नहीं छुआ ।
मेरा होना ही मुझे कहता है,
तू विद्यमान है ।
तुम्हारा मेरे संग होना,
या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,
मुझे लगता एक समान है ।
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जब भी मैं,
प्राप्ति की अनुभूति से जाता हूँ भर,
छलकते रहते हैं मेरे संचित,
उछृंखल हो कर,
या जब भी मेरे पूरे विस्तार में,
निपट शून्यता आती है उभर,
विश्रांति का आलस्य छाने लगता है मुझ पर,
दोनों ही स्थिति में,
एक-सा ही भाव समर्पण का,
मुझे हल्के से सहलाता है,
फिर पूछता है मुस्कुरा कर,
क्या तुम जानते हो,
तुझे मिला यह सब किस विधि का विधान है ?
या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,
मुझे लगता एक समान है ।
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अपने अस्तित्व के निरंतर आकलन में,
‘जो करना है’, के उद्यम में,
और ‘जो कर चुका हूँ’, के अध्ययन में,
एक प्रश्न उठता बार-बार, पग-पग पर,
करना और होना क्या हैं, युग्म, हैं अनंतर?
क्या एक दूसरे के आगे पीछे,
क्या आश्रित एक दूसरे पर?
देखूँ शुरू से अंत की ओर,
या अंत से निहारूँ आरंभ के छोर
जो होता है दृष्टिगत,
है जीवन, सम्पूर्ण, अक्षुण्ण, अक्षत,
इसमें कुछ भी विभाजित नहीं होता,
कुछ जीतने से कुछ पराजित नहीं होता,
कुछ जुड़ने से इसका आकार बड़ा नहीं होता,
कुछ घटने से लघुता का संकट खड़ा नहीं होता,
जो होता है, होता है,
जो नहीं होता, वह भी समग्र का एक अंश होता है।
इस जीवन के यायावर के लिये,
तुम्हारा प्रत्यक्ष नहीं होना भी,
मात्र एक होना है,
कदापि नहीं है तुम्हें खोना ।
शून्य और समग्र के बीच हर कुछ,
एक दूसरे से जुड़ हुआ है पूर्णत:,
यही समेकितता प्रतीत होता वास्तविक ज्ञान है ।
तुम्हारा मेरे संग होना,
या तुम्हारा मेरे संग नहीं होना,
मुझे लगता एक समान है ।