
आगंतुक, दो-चार पहर,
कभी आ रुक मेरे भी घर,
मैं भी निहारूँ कुछ अभिनव,
नयनों में लूँ सपने भर।
कुछ देर ठहर, कुछ देर ठहर।
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तेरी दृष्टि के छूने से,
आये अमूर्त संसार उभर,
तुझे छू लूँ बस एक बार,
हो हर भाव स्पंदित, मुखर।
जब तक उठे यह उद्वेग ठहर।
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पदचाप नहीं, संकेत नहीं,
न कोई तरंग, न कोई स्वर,
जैसे आंगन धूप उतरती,
आकर तू मेरे द्वार उतर।
चुपचाप सही, कुछ देर ठहर।
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तेरे होने के प्रकाश से,
पुलकित हर अणु हो-हो कर,
सुरभित हो और दीप्त रहें,
कम-से-कम मेरे जीवन भर।
कुछ ऐसा हो जो तू जाये ठहर।
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प्रश्न न कोई पूछूँ मैं,
न आशा कि तुम दो उत्तर,
संबंध मात्र इतना कि तुम,
तुम आ जाओगे मेरे घर।
अज्ञेय, निराकार, पर तनिक ठहर।
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मेरी शून्यता, मेरी नीरवता,
नहीं चाहता तुम दो भर,
तेरे स्पर्श से हो ऐसा कि,
हों उनके अर्थ प्रकट मुझ पर।
बस तब तक मेरे घर तू ठहर।
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न अभिलाषाओं का विलास,
न यश, कीर्ति, न कोई लक्ष्य अपर,
पर्याप्त तुम्हारा परिचय हो,
थक जाऊँ यदि मैं बीच समर।
पराजय में भी, मेरे संग ठहर।
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आगंतुक, बहुत हैं प्रिय जन तेरे,
है ज्ञात तुझे क्या मेरी डगर?
यदि नहीं, तो इतने से धन्य,
कि कभी-कभी देख लेना इधर।
क्षण भर तेरी दृष्टि जाये ठहर।
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क्षीण न हो विश्वास मेरा,
कि आओगे एक दिन चल कर,
संभावना मुझे रखते जीवित,
कल्पना, गति, स्पंदन बन कर।
घर नहीं रुचिकर, तो मन में ठहर।
आगंतुक, यह भी तेरा ही घर।