
अपने ही ओढे बंधन से,
मृगतृष्णा के अभिनंदन से,
यदि मुक्त हो बाहर निकले,
अब तक के सम्मोहन से,
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‘हो चुके’ के बंधन से छूटें,
रचना की ऊर्जा का ठौर मिले,
अति परिचय से उबरें तो,
क्या जानें कोई और मिले?
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क्षीण हो चले जिज्ञासा जब,
कौतूहल हो कुंठित अनायास,
होने लगे मद्धिम आकांक्षाएँ,
मन छोड़ने लगे नये प्रयास,
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इच्छा नहीं पुलकित होने की,
संवेदना बचे मुखरित होने से,
सपने भी अलसाने लगे और,
पुरुषार्थ दिखने लगे बौने-से,
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समय वही है जबकि चेतना,
झकझोरे और तंद्रा तोड़े,
खींच-खींच कर प्रश्नचिन्ह,
उद्देश्य और लक्ष्य नया जोड़े।
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इन-से ही पल, ऐसे ही क्षण,
होकर निर्पेक्ष परखते हमको,
अपने नियमों पर हम चलते,
या इच्छा वश में रखते हमको?
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विधि ने निर्माण में हमारे,
जो अंश देवत्व का जोड़ा था,
हो तटस्थ है पूछता रहता,
क्या यह प्रयोग भी अधूरा-सा,
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बाधा सकल हमारे अपने,
यदि डिगें न मौलिक चिंतन से,
है कौन जो रोक है सकता,
परम गति से, आरोहन से,
यदि मुक्त हो बाहर निकले,
हम अब तक के सम्मोहन से।