
मैंने क्षितिज पर,
एक साथ,
कई चांदों को उगते देखा।
वे बारी-बारी से,
मेरे पास आ रहे थे,
कुछ तो था,
जिसे आजमा रहे थे।
मुझे भी नहीं भाती,
मेरी उदासीनता,
उन्हे भी नहीं भायी।
कोई दुराव नहीं था,
पर बात जिद पर बन आयी।
तुम वहीं ठहरो,
पास मैं आऊंगा,
मैं चुनूंगा तम्हे,
और मैं चिन्हित करूंगा,
इस पल की दिशा रेखा।
मैंने क्षितिज पर,
एक साथ,
कई चांदों को उगते देखा।
.
पास गया,
और पूछा पहले चांद से मैंने,
कौन हो,
क्यों मेरी ओर आ रहे,
क्या है जो तुम,
कहने जा रहे?
क्यों तुम इतने सारे हो?
मतिभ्रम है यह मेरा,
चांद ही हो या,
चांद-से दिखते तारे हो।
.
चांद ही हूँ,
तुम्हारे मन में उगता हूँ,
डूबता भी तुम्हारे ही मन,
तुम्हारी इच्छा पर ढलता हूँ,
ईर्ष्या, द्वेष, स्नेह, आसक्ति,
श्रद्धा, कृतज्ञता और विरक्ति,
जो रूप देते हो,
ले कर चलता हूँ।
अनगिनत रूप मेरे,
तेरे ही मन की,
संभावनाओं के आकार हैं,
जिस घड़ी तू जैसा चुनता,
मन के तंतु से जो भी बुनता,
हो जाता तुम्हारा चांद,
उसी प्रकार है।
.
मैं धटता हूँ, बढता हूँ,
पर सदैव तुम्हारे संग चलता हूँ,
चुन कर मुझे,
उस क्षण तुम मुझ-सा हो जाते हो,
पर मैं तुझमें ही पलता हूँ।
तारे धटते-बढते नहीं,
स्थिर हैं,
तेरे संग चलते नहीं,
पर हर अमावस में,
तुम्हे राह दिखाते प्रकाश होते हैं,
मैं तुम्हारी भावना हूँ,
जीवन का स्पंदन हूँ,
संवेदना हूँ,
तारे तुम्हारी चेतना के श्रोत,
तुम्हारे विश्वास होते हैं।
.
जाना मैंने,
दृष्टि मेरी, चित्त भी मेरा,
संवेदना मेरी, विश्वास भी मेरा,
किन्तु सत्य कि जन्म- मरण,
और सृष्टि के दिये,
संभावनाओं के आवरण,
स्वीकार करें हम,
कदाचित हैं प्रारब्ध,
नियति निर्धारित विधि का लेखा।
तारों को नमन किया,
पर जीवन के अह्लाद को जाना,
अपने को सार्थक माना,
जब मैंने क्षितिज पर,
एक साथ,
कई चांदों को उगते देखा।