
दुनियाँ के बदहवास रेले में,
बमुश्किल चलने की जगह पाते, मेले में,
कभी इशारों की सुनते हुए,
कभी रोशनी, कभी अंधेरे को चुनते हुए,
एक साथ कई रास्तों पर तुम चले।
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कई बार राहों को चुनना था,
कई बार अपने आप,
बनते गये थे उनके सिलसिले।
चलना अधिक जरूरी लगता था,
मुड़ कर देखने की फुर्सत नहीं थी,
और थोड़ी राहों में रोशनी की कमी थी।
पता नहीं तुझे मालूम भी है या नहीं,
तुम हमेशा खास रहे, भीड़ में जुड़ने से पहले।
इनमें से कई रास्तों पर तुम बिल्कुल अकेले चले।
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अगले पल का पता नहीं था,
विश्वास जीवन पर था डगमगाता,
टंगे हुए अदृश्य धागे से,
झूलते हवा के थपेड़ों से,
जीवन के सारे अर्थ खोकर भी,
नितांत अकेले हो कर भी,
वह तुम्हीं थे जिसने चलना छोड़ा नहीं।
भय में और संशय में भी,
अकेले आगे बढने से मुँह नही मोड़ा।
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संभावनाओं के हर तार जब टूट गये,
आशाएँ ही नहीं, आशाओं के अर्थ भी पीछे छूट गये,
किसी दिशा से नहीं आता था,
किसी प्रश्न का उत्तर,
मन में बस द्रोह था,
टूट रहा हर मोह था,
और निरर्थकता से लिपटी थी चेतना आठों पहर।
ऐसे में फिर क्या हुआ,
तू याद कर, सब याद कर,
था रुका नहीं तू अवसाद कर,
अस्थि जला उस अंतहीन अंधकार में,
अंतर्मन की सुनता, पथ के भीषण हाहाकार में,
खींच निकाल अंधकूपों से स्वयम को,
उस अशनि-पात के पारावार से,
जो अकेला चलता रहा, वह तुम ही थे,
जिसने कुछ नया रचा, वह तुम ही थे।
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खुशी की खोज में चलते-चलते,
सुख और भोग को पा कर कहते,
यही तो है, मत लौट यहाँ से,
जीवन छोटा, व्यर्थ न कर,
जो भी तेरे सामर्थ्य में कर।
शक्ति झोंक औंधे तर्कों में,
उपहास तुम्हारा हर पल करते।
ऐसे में हो निपट अकेले,
दंश अपने स्वाभिमान पर झेले,
लहू लुहान अस्तित्व को लेकर,
हाथ धरे निज विश्वास पताका,
जो चला अकेला, वह तुम ही थे,
तुम भूल चले, पर तुम ही थे।
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जिन राहों पर भीड़ छोड़ कर,
शीश अपने विश्वास की धार धर,
अंतर्मन में छुपे भय से उबर,
बाहर के आतंक से पार उतर,
जब भी तुम चले अकेले,
उन्नत भाल, उन्मेष लक्ष्य ले,
मैं भी तेरे संग चल रहा था,
तुम मुझे स्थापित कर रहे थे,
एक दीप प्रगति पथ जल रहा था।
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तुम कहते हो तुम मेरी छाया में पलते,
सच हो शायद,
पर निश्चय ही अपने अंत:करण में,
तुम मुझे जिलाये चलते।
तुमसे चाहे जितनी भी मेरी छवि महिमामंडित है,
तुम्हारे हृदय के आश्रय के बिना,
अपूर्ण है, खंडित है।