कमजोर शायद नजर भी है

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जब आईना झूठ बोलने लगे,

तो कमजोर शायद नजर भी है,

सच पर परदे की पाबंदियाँ,

सिर्फ उधर ही नहीं, इधर भी है।

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कहने को क्या नहीं कह लेते हम,

फिक्र बस अपने गुजर-बसर की है।

शिकायत हवाओं की जितनी कर लें,

कुछ तो नाजुक हमारे घर भी है।

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ढूँढते किस खुशी की राह हरदम,

क्यों आसान सफर की चाहत है,

मुश्किल सही, पर मंजिल पाने को,

एक पगडंडी की राह इधर भी है।

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साफगोई पसंद हैं हम सब,

सीधी बातों के मुरीद भी यारों,

बस सीधे साधे लोगों को अक्सर,

उलझाने का हममें हुनर भी है।

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इन कंधों पर बोझ उनका भी है,

दुनियाँ भर को समझाना चाहें पर,

अपने में मगन, लोग सुनते ही नहीं,

कहिये शराफत यह किधर की है।

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दिन जिसके लहू जलाते नहीं,

रातें थक के सोने को नहीं होती,

सुबह उनकी तो खाली होती ही,

शामें भी बस ऐसे ही गुजरती है।

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चलो आज ये ठान लेते हैं,

लेने से अधिक देंगें हम यारों,

फिर जो सुकून मिलता है,

उसकी तासीर ता-उम्र ठहरती है।

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