
मन तुम मेरे चिर सखा,
मेरी चेतना प्रवाह की धार,
मेरी गति, बल, क्षमता के,
तुम एक मात्र आधार।
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साँझ सवेरे फिर जी उठता,
सुन मन तेरे मनुहार,
तन, मन की संचित हर ऊर्जा,
बस तेरे हैं उपकार।
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मेरी तुमसे बात हुई थी,
हम सब मिल कर बाँटेंगे,
पर मैं देता बस डंक प्रश्न के,
और तुम सारे उपचार।
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प्रशस्त रहें जनपथ सारे,
जन-जन प्रगति निर्बाध करें,
पर तेरी सँकड़ी गलियों में ही,
चित्त पाता विस्तार।
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जीवन के शांत सरोवर में,
जो लहर मनोरम उठते हैं,
तेरे छेड़े राग सभी हैं,
और सब तेरे उद्गार।
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जितने भी श्रृंगार किये,
जितना भी खुद को चाहा मैं,
झूठे लगे, मैं भूला उनको,
पर याद तेरा अभिसार।
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कोई कहानी यदि सुनाऊँ,
तुझसे ही माँगूँ हर शब्द,
गिनूँ कहाँ तक ऐसे तेरे,
हैं अनगिनत उधार।
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ऐसा अक्सर ही होता है,
सारी दुनियाँ बंद लगे,
बाँह पसारे हरदम मिलते,
खुले हुए तेरे द्वार।
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अर्थ ढूँढता हर प्रत्यक्ष में,
अनहद मेरी जिज्ञासा,
फिर भोले शिशु-सा सो जाता वह,
सब कुछ तुझ पर वार।
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सृष्टि के सारे रंग अनोखे,
सबके सब ललचाते हैं,
पर जहाँ मैं बसना चाहूँ,
है तेरा नील-श्याम संसार।
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मैं सबकुछ तुमसे ही लेता,
कह उनको अपना बाँट हूँ देता,
तुम मुस्काते देते जाते,
अद्भुत तुम सतत उदार।
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तुम मेरे या मैं हूँ तेरा,
मैं गणना करता रहता हूँ,
ईर्ष्या होती, जब तुमको देखूँ,
फिर भी कलुषहीन, निर्विकार।