
पगडंडियों से घर लौटते हुए,
पत्तों की छुअन से,
काँटों की चुभन से,
एक परिचय जगने लगा,
और बहुत ही जल्दी,
वह वर्षों पुराना लगने लगा।
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थोड़ी काई थी, थोड़ी फिसलन थी,
पर कोई उकताहट नहीं,
ना ही कोई उलझन थी।
कोई समझा रहा था,
कि इस रास्ते,
समय अधिक,
पर मन बहुत ही ज्यादा लगेगा,
यदि लाभ-हानि की बात बिसार सको,
तो अपनापन बहुत ही ज्यादा लगेगा।
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मन को थोड़ी ढील देनी होगी,
तन से पसीना थोड़ा बहाना होगा,
इसके अलावा जादू का,
कोई मोल नहीं चुकाना होगा।
स्वाद धीरे-धीरे जुबान पर चढता जायेगा,
अंदर से उठती गंध सराबोर कर देगी,
बस कुछ देर के लिये कोई सवाल मत पूछना,
सरसता की छाया,
और समरसता की माया,
बरबस तुम्हे अपनी ओर कर लेगी।
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यादों के झूले में झूलना,
किरणों के संग लहराना,
और अनजानी खुशी से फूलना-इतराना,
यह सब तुम्हें हल्का कर देगा,
और तुम्हें वहाँ ले जायेगा,
जहाँ तुम हरदम जाना चाहते थे,
और नहीं जानते थे कि कहाँ से होकर,
गुजरते वहाँ के रास्ते थे।
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बस थोड़ी फुर्सत रखना,
और थोड़ी हिम्मत रखना,
और रखना अपने आप पर बहुत सारा यकीन,
क्योंकि इनके बिना,
शायद तुम्हें दिखे ही नहीं,
पगडंडियों का आमंत्रण,
बगल के पक्के रास्ते,
तुम्हारे ऊपर डाल दे अपना सम्मोहन,
और कर दें संवेदनाओं से विहीन।
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बस थोड़ा लाभ-हानि की गणना से दूर,
थोड़ी काई और फिसलन को कर मंजूर,
मन की गाँठों पर दे कर थोड़ी ढील,
फुर्सत के कुछेक लम्हे और आशाएँ भरपूर,
चलो सोते मन को जगायें।
एक बार फिर खुद से मिल आयें।
पगडंडियों से होकर जायें।