
इस निष्ठुर नियति के संसार में,
‘हूँ क्यों मैं?’ के निर्मम विचार में,
मोह भंग और आसक्ति ज्वार में,
चिर सृजन-ध्वंश के पारावार में,
कर्तव्य और अधिकार, हैं तेरे स्वीकार के याचक,
विधि सदैव तटस्थ, यदि पहुँच सको तुम उस तक।
जीवन के प्रति सहज आभार में,
गति और दिशा के परिष्कार में,
ईंधन के अर्जन और उपचार में,
उचित-अनुचित की तीक्ष्ण धार में,
कुछ भी सत्य ना मिथ्या, जीवन मात्र जीवन है होता,
तू ही लिखता भवितव्य, विधि बस तेरे संग है सोता।
लुप्तप्राय सृष्टि के विस्तार में,
सूक्ष्म चेतना के हर चमत्कार में,
प्रकाश पुंज और अंधकार में,
इस जीवन के सकल आकार में,
हर वेदना स्वीकार, यदि हो सृजन के हेतु तो,
नमन अंगीकार यदि, यदि उन्नयन के हेतु तो।
अकिंचनता के हाहाकार में,
दिनचर्या के सतत व्यापार में,
भूख, पिपासा, लवण-क्षार में,
अस्तित्व रक्षण के हर उधार में,
हर यत्न तेरा अधिकार, यदि जीवन-प्राण हेतु तो,
हर भीति पर प्रहार, यदि लक्ष्य के संधान हेतु तो।
प्रश्न तुम्हारे, अर्थ तुम्ही हो, निश्चय कुछ निर्माण हेतु हो,
सब रंग जीवन के हैं तेरे, हो चिर जिज्ञासू, ज्ञान सेतु हो।