
क्या धन और क्या ऋण जीवन के?
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जो लिया, मात्र वही संचित है,
पर जिसे लिया, वह ऋण निश्चित है,
वह मेरा धन मैं मान लूँ कैसे?
गाँठ भरी पर मन चिंतित है।
प्रश्नों के हर पग पर पहरे।
क्या धन और क्या ऋण जीवन के?
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जो दिया सम्भवत: देय मात्र था?
मैं किसी श्रेय का नहीं पात्र था?
और दे दिया तो मेरे पास नहीं है,
बस मन में एक विश्वास कहीं है,
कि कुछ है पाने-खोने से आगे चलके।
क्या धन और क्या ऋण जीवन के?
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जीवन दुविधा है, संघर्ष सकल है,
पर उल्लास अभिष्ट इसका हर पल है,
फिर भय और संताप कहाँ से आते?
आजीवन क्यों हम ऋण को चुकाते,
क्षद्म विलास और परपीड़ण के?
क्या धन और क्या ऋण जीवन के?
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कोई क्यों चाहे अंतिम उत्तर,
यदि करते ये जीवन को दुष्कर,
सहज धन्यता धन-सा लगता,
पश्चाताप से ऋण है जगता,
लक्ष्य कि मन के भार हों हलके।
क्या धन और क्या ऋण जीवन के?