
सुना था,
प्रेम बाँधता नहीं,
उन्मुक्त करता है;
बिना देखे-सुने-छुए ही,
खुद को व्यक्त करता है।
मुक्त करता है,
अवांछित बंधनों से,
और बंधनों के टूटने के भय से;
सुख के पाश से,
और भविष्य के अनावश्यक संशय से।
मुक्त करता है,
मात्र व्यक्ति को नहीं,
व्यक्ति में बसे प्राण को भी;
हृदय में छुपी तृष्णा को ही नहीं,
चित्त को बाँधते अभिमान को भी।
प्रेम खोलता है सारे बंद द्वारों को,
और आने देता है निर्मल बयार को;
दीये को बुझने से बचाने को,
नहीं कर लेता बंद सम्पूर्ण संसार को।
सुलझाता है उन तंतुओं को,
जो उलझाते हैं पिपासा से अनुराग को;
शीतल करता सब कुछ पाने की लालसा को,
और अर्थहीन संचय की आग को।
और मैं ने देखा है,
जो तरंग उठती है,
बंधनों के उन्मुक्त होने से,
देती है सार्थकता,
हमारे अश्रु को, हास को;
जीवन में बसे,
जीवन की पूर्णता के विश्वास को।
प्रेम जब जगता है,
हृदय के हर स्पंदन में पलता है;
सहेजो तो जीवन भर,
चतुर्दिक प्रकाश फैलाता,
ईंधन बन जलता है।
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