
सुबह नींद खुले और आँख कृतज्ञता से नम नहीं हो,
और सीने की जलन आँसुओं से कम नहीं हो,
किसी को देख कर उसे पुकारने को जी नहीं करे,
गहराती साँझ में यूँ ही भटकने का मन कभी नहीं करे,
पुरानीं यादें कभी अचानक अचरज से सराबोर नहीं कर दे,
छूट गये साथियों के किस्से मीठा-सा अफसोस नहीं भर दे,
कभी ऐसा नहीं लगे कि बहुत कुछ करना अभी बचा हुआ है,
मैं अर्जुन हूँ महाभारत का, जो मेरे अंदर मचा हुआ है,
तो समझो जड़ता घेर रही है, अंधकार व्याप्त हो रहा है।
जीने के आनंद का युग धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है।
पुरानी बातें यदि, नयी वेशभूषा में ललचाए नहीं कभी,
कुछ नयी बातें, अपनी धृष्टता से चौंकाए नहीं कभी,
इतिहास में जाकर कुछ मिटाने का मन नहीं करे,
असंभव सा कुछ बदलने का पौरुष जतन नहीं करे,
कुछ सोच कर अनायास बाँह नहीं फड़के,
किसी और जग से आये संकेतों से हृदय नहीं धड़के,
प्रत्यक्ष से परे जीने को सपनो का कोई संसार नहीं हो,
आज के यथार्थ से ऊपर और कोई विचार नहीं हो।
तो निश्चय ही जीवन की ऊर्जा का क्षय हो रहा है,
चेतना का जड़ता में विलय हो रहा है।
और कुछ नहीं तो मन के आकाश को खंगाल,
कुछ भी अंतिम नहीं होता, वृथा संशय न पाल,
रात कितनी भी गहरी हो, लौ से लौ जलती है,
चेतना क्षिण हो कर भी जिज्ञासा को संग लिये चलती है,
खोजोगे तो पाओगे, विवशता या वरदान जीवन तय करके नहीं आता,
यथार्थ की पीड़ा ही नहीं, यहाँ सम्भावनाओं का अनंत भी समाता,
जलने से डर कर यदि बाती को आगे नहीं बढाते,
दोष जिसे भी दें, अंत में हैं, धुआँ और अंधकार ही पाते।
बाहें खोल स्वागत, हर स्पर्श का, संकेत का,
प्राण है प्रणम्य, जीवन सुन्दर सुयोग सर्वथा।