
तू गढ।
जीवन का मूल चलना, सही,
पर मात्र उगना, ढलना नहीं,
गति निरर्थक हो सकती है,
जीवन को भँवरों में खो सकती है,
गति को दिशा दे अहर्निश,
लक्ष्य की ओर बढ।
तू गढ।
वेदना की मिट्टी ले कर,
कुछ अश्रु, कुछ स्वेद दे कर,
निर्माण कर कुछ आकार नये,
कि एक भय-भ्रांति हीन संसार बने।
फिर फूँक दे प्राण उनमें,
मंत्र-मानवता पढ।
तू गढ।
संग चेतना की प्रखर ज्वाला,
मन को बना निर्माणशाला,
दे आहूति अपने अहंकार की
तप कर बन अश्व, रथ और सारथी,
बाट जोह मत किसीकी,
तू ऊपर चढ।
तू गढ।
भयप्रद सृष्टि का अनंत विस्तार,
मत छोड़ निज कर्म का अधिकार,
जितना जो कुछ तेरा निर्माण,
इस अनंत यात्रा में तेरा योगदान,
कोरा है जीवन अब तक,
उसमें अर्थ मढ।
तू गढ।
जोड़, सँवार त्रुटि और फिर जोड़,
मुड़ विच्छेद से निर्माण की ओर,
शाश्वत तुझको तेरी रचना करता,
अभिष्ट सदा कृति की सुन्दरता।
निरंतर बना सोपान अपना,
और उसके ऊपर चढ।
तू गढ।