
पल ने युग से कहा,
सबकुछ तो मैंने सहा,
रुका नहीं, चलता रहा,
बुझा नहीं, जलता रहा,
था कोई प्रारब्ध नहीं जिसकी सुनता,
बस गति थी, रहा अनवरत बुनता,
जुड़ती रही सम्भावनाओं के तार नये,
और तुम बन गये।
युग,
तुम बढते गये,
स्मृति की ठंढी सीढियाँ चढते गये,
तुम धरती बने, क्षिति और व्योम बने,
सर्वव्यापी, सर्वग्राही और सर्वभौम बने,
मैं सूक्ष्मतम एक बिंदु पर डोलता,
तुम्हें देखता-भालता रहा;
तुम्हारा निर्माण रुके नहीं,
इसलिये स्वयम को सम्हालता रहा।
मैं गति हूँ, पर कहीं जाता नहीं हूँ,
तुम मुझसे बनते, पर मैं तुम्हें बनाता नहीं हूँ,
निर्पेक्ष हूँ,
दिशा का अर्थ नहीं मुझमें;
स्वच्छंद हूँ,
कोई पूर्वाग्रह व्यर्थ नहीं मुझमें;
मैं जीना सिखाता हूँ, स्वयम जीता नहीं,
इसीलिये मरता नहीं, होता कभी बीता नहीं।
फिर हो तुम बनते कैसे?
तुम किससे बनते,
तुम्हें बनाता कौन है?
सृष्टि में व्याप्त कोलाहल,
या कि चेतना का सघन मौन है?
तुम्हारा विस्तार,
एक अर्थहीन प्रसार है?
या अनुभव और स्मृतियों से बुना,
समय को परिभाषित करता,
जीवन का सामूहिक सार है?
तुम्हारे पटल पर बिखरी,
असंख्य रंगो की अनुरंजना;
मनोहारी और भयावह,
हैं किसी उपयोग के,
या अर्थहीन प्रवंचना?
युग कभी उत्तर नहीं देता,
बस होता है,
पल अपनी जिज्ञासा परंतु,
कभी नहीं खोता है।
जीवन बना समृतियों से,
संवेदना, अनुभव और विचारों से;
प्रशस्त चेतना से,
सधा हुआ कर्मों से, बंधा हुआ संस्कारों से;
जीता तो इन्ही पलों में,
पर उत्तरदायी युगों के प्रति,
और परखा जाता इतिहास के,
मृत हो चुके आधारों से।
जीता मनुष्य सदा वर्तमान में,
पलों में है।
पर दिशा उसकी तय होती,
बीते पलों की आकांक्षाओँ,
संवेदनाओँ, संरचनाओँ,
विश्वास और छलों से है।
जीवन पलों में चलायमान माया है,
युग देता उसको आकार और काया है।