
खुद को समझा नहीं पाता,
तो दम भर को ठहर जाता हूँ,
अंदर को मुड़ती राहों पर,
दो-चार कदम चल के आता हूँ।
झूठ की जिद नहीं करता,
करता हूँ खुशामद, मनाता हूँ,
नया यह है कि वह मानता नहीं,
तो मैं खुद ही मान जाता हूँ।
बहस लम्बी चलती है तो,
फिर मिलने की बात करता हूँ,
उसका पता पूछता हूँ,
और उसे अपना पता दे आता हूँ।
मसखरी भी कभी-कभी दोस्तों,
खूब होती रहती है हममें,
वह ढूँढता रहता है मुझे,
और मैं छुपता चला जाता हूँ।
कई बार मिलता हूँ उससे,
कभी के बंजर हो चुके खेतों में,
पत्थर हुई मिट्टी को,
फसलों के किस्से सुना आता हूँ।
पनघट पर भी जाता हूँ,
साथ मरघट भी हो आता हूँ,
प्यास में डूब मरे लम्हों को,
जिला कर वापस ले आता हूँ।
हँसने वालों की मुझपर,
कभी कमी नहीं रही है यारों,
कोई और नहीं मिलता है तो,
फिर से उन्ही को हँसा आता हूँ।
कई चोट भी हसीन हैं अपने,
किसी से उन्हे छुपाना कैसा,
अपने उन खूबसूरत दागों को,
देख कर अक्सर सुकून पाता हूँ।
बात मुख्तसर-सी है इतनी,
तनहाई में जिंदा हूँ, शर्मिंदा नहीं,
बड़े प्यार से जिया हूँ अबतक,
बड़े फख्र से जिये जाता हूँ।