
अंत:स्थल में फूटती
पहली किरण के साथ ही,
मन के पटल पर एक छाया पड़ी,
किसकी?
कभी समझ नहीं आय़ा,
पर अंतर्मन के केंद्र में,
तुम्हें सदैव विद्यमान पाया।
राह निहारते थकता रहा मन,
फिर भी मैंने मूँदे नहीं नयन,
ढूँढता रहा,
उन सारी अमल-धवल राहों पर,
तुम्हार पैरों के छाप,
जो कहीं गोचर हो नहीं पाया।
तुम किस राह आये, ज्ञात नहीं,
पर अंतर्मन के केंद्र में,
तुम्हें सदैव विद्यमान पाया।
शांत दिगंत, शांत वातावरण,
सबकुछ भूल, तेरी पदचाप टोहता मन,
कहीं न मिलता आभास कोई,
सूक्ष्मतम गति भी दिख नहीं पाया।
मैंने तो खोला नहीं कोई द्वार,
पर अंतर्मन के केंद्र में,
तुम्हें सदैव विद्यमान पाया।
मन का आकाश था मेघाच्छन्न,
प्रकाश मद्धिम और व्याकुल मन,
भय, संदेह, आशंका होते सघन,
आह, अलौकिक, क्षण भर का,
पवन प्रवाह और असनि आलोक,
मेघ छँटा,
दिखी भू से नभ तक तेरी ही माया।
मैंने तो किया नहीं कोई उपचार,
पर अंतर्मन के केंद्र में,
तुम्हें सदैव विद्यमान पाया।
जन समूह का सागर मंथन,
प्राण और चित्त हारे सहज नियंत्रण,
विश्वास तर्क से टूट रहा था,
कातर मैं, संबल ढूँढ रहा था,
एकांत ने आकर मुझको सहलाया,
चमत्कार, मैंने तुझे पार्श्व में पाया।
बहुत कुछ चारों ओर रहे,
पर सदैव अंतर्मन के केंद्र में,
विद्यमान रही है तेरी छाया।