
हम छोटे होने लगते हैं,
जब हमें लगता है,
हमारा होना औरों से अच्छा है।
बाकी सब के थोड़े मलिन हैं,
मन का उजाला हमारा ही सच्चा है।
समझ हमारी ही पूरी है, गहरी है,
बाकी सबों का ज्ञान अभी कच्चा है।
हमने अपने आपको तपाया है,
औरों की बनावट का सामान सभी कच्चा है।
हम खोटे होने लगते हैं,
जब हमें लगता है,
हमारा ही सिक्का सबसे खरा है।
कहीं से भी देख लो,
हमारा कद दिखता औरों से बड़ा है।
हमें और ऊपर चढने की जरूरत क्या अभी,
कितना कुछ कदमों के नीचे ही पड़ा है।
हमारे ही तो पूरे जीते जागते हैं,
औरों का एहसास जिंदा नहीं, अधमरा है।
हम छिछले होने लगते हैं,
जब अपनी जड़ों से दूर होते हैं।
बीते कल को नहीं पहचानने को,
करते खुद को ही मजबूर होते हैं।
अपनी जागीर मानते हैं आने वाले कल को,
और अपने से भी जरा-सा मगरूर होते हैं।
नाम देते हैं इसे बड़प्पन का,
दरअसल अपने मद में चूड़ होते हैं।
हम हलके होने लगते हैं,
जब हमें अपने पैरों का छाप
लगता औरों से गहरा लगता है।
औरों खुलेपन की तमन्ना होती है,
और खुद पर अंधेरे में भी पहरा लगता है।
लगती औरों की दुनियाँ बदरंग-सी,
और अपना हर सपना सुनहरा लगता है।
दिखती हैं चेहरों की छिपी मैल भी हमें औरों की,
और अपना चेहरा चमक भरा लगता है।
हम घटने लगते हैं,
जब हम अपनी परछाइयों से,
लोगों को अपना कद बताते हैं।
औरों की कामयाबी पर,
अपनी दुआओं का हक जताते हैं।
पाँयचे उठा के चलते हैं,
भीड़ से दूरी बनाके आते-जाते हैं।
वहाँ फलसफा की बातें करते हैं,
जहाँ खुद अदब भी नहीं निभा पाते है।
आगे बस इतना है कि,
जब भी खुद से सामना होता है तो,
अपनी ही शर्मिंदगी में भींगे रहते हैं,
अक्सर खुद से नजर मिलाने से कतराते हैं।
जानते हैं कि एक फरेब के बस के में चल रहे हैं,
हकीकत की जिंदगी जी नहीं पाते हैं।
और औरों को क्या खुद को भी,
यह घुटन, यह सच्चाई बता नहीं पाते हैं।