
किससे पूछूँ क्या ढूँढ रहा हूँ,
क्या जाना, क्या समझ नहीं आया है?
हृदय के छल से और बुद्धि के बल से,
आखिर कौन जीत पाया है?
कभी जो प्रत्यक्ष, रहस्य-सा लगता,
कभी अदृष्य भी लगता साकार,
जो दिखता है, है सचमुच वैसा ही,
मन कई बार मान नहीं पाया है।
कितना अनजाना-सा लगता है,
वह सब कुछ जो है चारों ओर,
फिर कैसे तुरत लगता संसार सारा,
मेरे मन में ही तो समाया है।
पल-पल रूप बदलता जग यह,
क्या लगती नहीं कल्पना किसी की,
कौतुक से भरा ठगा-ठगा सोचता मैं,
यह सचमुच है, या मन में उगती कोई छाया है।
सहज आनंद की चिंता छोड़,
गूढ प्रश्न करना, फिर उसको सुलझाना,
क्यों आदि काल से इसी खेल ने
मानव के जीवन को उलझाया है।
जीवन, जीने की विधा है,
उद्देश्य इसका, शुचिता और आनंद,
और इसके प्रयत्न में ही तो सार है होने का,
बाकी सब चलती फिरती माया है।