
पौ फटते ही आँखे मलते,
झिझक-झिझक कर चलते-चलते,
गिरते-पड़ते और सम्हलते,
सफर तुम्हारे साथ कटा पर,
बस तुम ही रह गये मिलते-मिलते।
पग पाये और चलना सीखा,
फिर राहों को चुनना सीखा,
कुछ याद रखे, कुछ भूलना सीखा,
फिर जो देखा ओर तुम्हारे,
संकेत तरंग को सुनना सीखा।
दिखा बहुत, पर समझा कम था,
सही, गलत सब लगता सम था,
दर्शन थे या मन का भ्रम था,
हर कसौटी खड़ा जो उतरे,
कहाँ पंथ वह और कहाँ नियम था।
हँसना, रोना सदा संग थे,
पल पीड़ा के, क्षण आनंद के,
जो भी इनके छद्म संबंध थे,
पर पीड़ा है क्यों? पूछ उठा मन,
क्यों है जगत का रुग्ण प्रबंध ये?
अब अंतर्मन मैं क्रुद्ध जरा था,
सम्मुख तेरे और दूर खड़ा था,
तुम वत्सल, मैं अड़ा-अड़ा था,
दुख समूल क्यों नष्ट न होता,
मेरे क्लेष का श्रोत बड़ा था।
फिर फूल भरे एक वृक्ष को देखा,
वन, प्रकृति, अंतरिक्ष को देखा,
जीवन चक्र वहाँ भी मनुज सरीखा,
पर पीड़ा से आक्रांत न कोई,
भय, संताप से हर कोई बरी था।
क्या मानव चेतना मूल विषय है?
क्या बल, आकांक्षा मूल प्रलय है,
क्या क्षुद्र ज्ञान उपजाता संशय है,
स्वार्थ तिल भर विचलित करे तो,
मन होता क्लेश का बीज उदय है।
जीवन गह अपने नियम चला है,
सदा निर्विकार, निर्पेक्ष रहा है,
पर करुणा, संयम और प्रताप कहाँ है?
हम ही हैं जो पीड़ा हैं जनते,
वरना सकल सृष्टि में संताप कहाँ है?
बहुत सुन्दर कोहरे का कोमल दृश्य और ख़ूबसूरत गीत भी 🌷👌🙏 बधाइयाँ 👏
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बहुत बहुत धन्यवाद। आभारी हूँ।
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शुक्रिया 🌷🙏 हार्दिक शुभकामनाएँ 👏😊
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