
वादों में, विवादों में घिरता रहा,
अपवादों, परिवादों को झेला सहा,
जीवन का मूल विषय कहीं छूट गया,
तर्क रहा, भाव मुझसे रूठ गया।
भाषा-परिभाषा की उलझनों को सुलझाते,
आशा और प्रत्याशा के बीच झूलते, बल खाते,
हाथ जो बचा, कोई संतुलन की विधा थी,
शुचिता मूल प्रश्न की विलुप्त हो सदा गयी।
मंदिरों में, श्मशानों में ध्यान लगाये,
विद्या के संस्थानों में समय बिताये,
हल मिला कोई, या बस उपजे संदेह नये?
समझ बढी, या प्रश्न नये और पनप गये?
वर्तमान के चक्रवात में, अनवरत झंझा में
भूत-भविष्य के रहस्य, विश्लेषण, आशंका में,
पौरुष की आकांक्षा में, लालसा की लंका में,
नहीं मिला उत्तर देवों की अनुकम्पा में।
हर त्रिज्या, परिधि, हर केन्द्र बिंदु पर,
सारी युक्ति लगा, और तर्क सजा कर,
सोचता अंतहीन शोधों को दे तनिक विराम,
है क्या संदेश अंतत: मनुष्यता के नाम?
हर प्राणी के लिये स्वाभाविक कुशल-क्षेम,
मन प्रकृति और वसुंधरा से अकलुष प्रेम,
हर व्यक्ति विशेष, पर मूलत: एक समान,
सब के हृदय में सबके लिये सहज सम्मान।
स्नेह सरल हो और सहज सम्मति हो,
जिज्ञासा ज्ञान का देता जीवन को गति हो,
कल्याण सब का हो, न किसी की क्षति हो, अह्लादमय जीवन इस सृष्टि की नियति हो।