ऋण-धन

Photo by Abdullah Ghatasheh on Pexels.com

नन्हे शिशु-सा आकुल हो मन,

पूछे हर पल, कैसा हो जीवन?

कैसे हो सकती है गणणा,

क्या इसके ऋण, क्या इसका धन?

जीवन में जब कुछ भी घटा,

तो कुछ और पन्ने जुड़ गये,

यह गणित समझना बाकी था,

कि कई प्रश्न खड़े हो गये नये।

जुड़ा जहाँ कुछ समझ न आया,

आकार बढा या भार बढा,

भ्रम में मन, उत्तर दे कोई,

है गंतव्य सही जो मैं ने गढा?

‘गंतव्य कहाँ?’ एक ज्ञान दे गया,

लक्ष्य और स्पृहा भिन्न-भिन्न हैं,

संधान प्रथम का जीवन यात्रा,

दूसरा एक चक्रव्यूह अंतहीन है।

पीड़ा चेतना में चुभती-चुभती,

बनी सदा हृदय के पास रही,

कहा ‘तुम मुझे सहते निश्चय ही,

मैं तुझमें बुनती विश्वास रही।‘

उल्लास, तुम मेरे आराध्य हो,

मन बसो, परंतु इतना करना,

समृद्धि भाव का देना पर,

विवेक कभी बाधित ना करना।

सहज, सरल हो जीवन परंतु,

इसका भी अभिमान न हो,

कलुष मिटाने की शक्ति हो,

सामर्थ्य कभी निष्प्राण न हो।

Published by

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s