
ओस की बूँदों नें,
घास की झुकी नोकों से उतरते हुए,
अपना सफर खत्म करते हुए,
जड़ों में समाने से पहले,
आखिरी बार अपनी तरलता
महसूस कर पाने से पहले,
कहा, बहुत कुछ करता याद,
चलो इतने लम्बे सफ़र के बाद,
एक चक्र पूरा हुआ।
बस शुरू होने को एक नया।
मिट्टी के कणों में समाहित,
मिट्टी का ही अंश,
नहीं अलग से परिभाषित,
अंधकार ही जिसका संसार था,
किसी और में विलीन जिसका आकार था,
मात्र होना था, होने का ज्ञान नहीं था,
ना अस्तित्व,
ना ही इसकी सम्भावनाओं का कोई विचार था।
कुछ ज्ञात नहीं,
पर कुछ हुआ कहीं,
एक सूक्ष्म स्पंदन का संचार हुआ,
एक गति, एक दिशा और एक उद्देश्य
अकस्मात साकार हुआ।
भले अत्यंत जटिल थी राहें,
थी शक्ति कोई जो ले चलती थी,
बहती सूक्ष्म रंध्रों में थी,
किसीके प्राणों में वह पलती थी।
इस होने में एक बंधन था,
और उस बंधन में भी सुख था,
खुशी बहुत, कि कारण है किसी जीवन का,
पर गहरे कहीं कुछ था जो अब भी विमुख था।
मोह बंधन का चुक जाता है,
कुछ दूर चलकर रुक जाता है,
सम्मोहन खुलकर जी पाने का,
दुस्सह फिर भी मन भाता है।
अंत:स्थल के रंध्रों से चलकर,
निकल आना हरे मृदुल सतहों पर,
बोध था उन्मुक्ति का नया-नया,
नये भावों एक नया संसार मुखर।
पवन का हिंडोला, सूर्य के किरणों की छुअन,
कभी मृदुल पोषण, कभी अस्तित्व को जूझता जीवन,
था कृतकृत्य मन, थोड़ा असहज, पर पुलक भरा;
पर अब लगी लुभाने क्षितिज की सीमाएँ हर क्षण।
फिर एक दिन चाहे-अनचाहे,
पवन के कंधों पर, किरणो के संग,
उड़ चला, ऊपर, बहुत ऊपर,
लिये नया रूप, जैसे एक उन्मुक्त तरंग।
क्षितिज को देखा, उस के पार देखा,
घूमा अनंत में बिन लेखा-जोखा,
चाह हुई हर पूरी,
पर विस्मय,
उसे अपनी ही भारहीनता ने टोका।
बहुत हुआ बिन उद्देश्य घूमना,
ढूँढ प्रयोजन अब कोई अपना,
शेष जीवन यदि इसी गति चला तो,
क्या होगा उचित इसे जीवन कहना?
कहाँ-कहाँ उड़ता फिरा,
ज्ञात नहीं, पर फिर कुछ ऐसा लगा,
चाह रहा वह अपने भार का अनुभव,
और शनै:-शनै: विस्तार संघनित होने लगा।
आभास कर एक वांछित दबाव,
जैसे नया अर्थ कोई, नया एक भाव,
स्पर्श पाकर तृण के कोमल कोपल का,
बूंद बन ठहर गयी वहीं,
और घास थोड़ा झुकी उसके प्रभाव।
पूरा हुआ एक चक्र जीवन का ।
अर्थ हीन या बहुत गूढ है,
प्रश्न शेष यह शंकित मन का।