
एक मैं हूँ जो भूलता रहता हूँ,
और एक तुम हो जो बस मुस्कुराते रहते हो;
इस ओर मैं कुछ नहीं कहता,
उस ओर तुम मेरा कुछ भी सुनने आते रहते हो;
मैं अनायास ही भटकता हूँ,
तुम उतनी ही तत्परता से प्रकाश दिखाते रहते हो;
मेरी उच्छृंखलताएँ जो किसी को नहीं भातीं,
कितनी सहजता से सहते हो।
मुझे वास्तविक विस्मय किंतु इस पर होता है,
कि तुम मुझे कुछ भूलने से भी नहीं रोकते हो;
असमय चुप रहने की उदंडता करता हूँ,
तुम कभी नहीं टोकते हो;
मेरे भटकने को भी सहज स्वीकारते हो,
आश्चर्य कि इतने सहिष्णु कैसे हो सके हो?
सीमाओं को छू पाने की मेरी लालसा,
मेरी धृष्टता को बढाये चली जाती है;
पर हर बार तुम्हारी क्षमा,
मेरे अपराध से बड़ी हो जाती है।
बंधनों को तोड़ने के हठ ने,
कई बार तुम्हारे विधान का अतिक्रमण किया है;
कभी नियमों अर्थ बदल,
कभी सुझा कर नये हल,
तुमने मेरे चित्त के उद्वेग का शमन किया है।
सृजन को मान अपना अधिकार,
प्रमाद में,
मैंने विध्वंस का भी निर्माण किया है;
कितने वत्सल भाव से तुमने उन्हें भी,
अंगीकार कर,
उन्हें एक नया नाम दिया है।
एक मैं हूँ, जो अधिकार दिखाने से,
कभी चूकता नही हूँ;
एक तुम हो कि उपकार कर पाने में,
कभी रुकते नहीं हो।
अब तक ऐसा कुछ भी घटित नहीं,
जिसमें मैं तुझे पहचान नहीं पाया हूँ;
लज्जित हूँ, पर सत्य है कि,
तुम कौन हो जान नहीं पाया हूँ।
सच कहूँ मेरे सबसे बड़े धन्यता के हैं,
वह कुछेक क्षण;
जब मैं मान लेता हूँ कि तुम हो ही नहीं,
और तुमने मेरे इस अहंकार को स्वीकार कर,
पूरा इतिहास भुला कर,
दिया है मुझे अकलुष नवजीवन।