
जो पाँवों के नीचे होता है,
वही आधार होता है;
भ्रम में मत रहो,
सर के ऊपर तो भार होता है।
आँखें चाहे जितना भी समा ले अपने में,
मन के अंदर ही बसा हुआ,
जीवन का पूरा विस्तार होता है।
किसी तक चल कर जाना,
किसी को छू कर,
दोनों के होने का एहसास दिलाना,
आँखों से कुछ कह पाना,
और साँसों की समता में,
चेतना का साक्षात लय पाना;
ये ही कुछ जीवन के परिचय हैं;
शेष कवच, कुंडल,
महिमा मंडल,
और आवरण में खुद को,
छिपाने के निर्णय हैं।
हाथों से छू पाना,
जैसे कि सचमुच जान जाना,
सबसे अधिक जीवंत अनुभूति, स्पर्श होता है;
मूर्त-अमूर्त का मिलन,
जैसे क्षितिज पर मिलते धरती गगन,
पहुँच पाना ऐसी जगह,
जहाँ संवेदना को आकार मिलता है,
निराकार और प्रत्यक्ष का संघर्ष होता है।
आगे बढते कदम,
कभी तेज-तेज, कभी हिचकिचाते;
त्याग सारी शंकाओं को,
पथ के काँटो की चुभन को झुठलाते;
कभी अहंकार छोड़,
और कभी तोड़ संयम के बंधन को,
जब पहुँचते हैं किसी तक;
अर्थ देते हैं जीवन को,
बस अपने में ही हो कर,
जियो मत निरर्थक।
गति ही तो चेतना का प्रमाण है;
अन्यथा समय तो उन जगहों पर भी गुजरता ही है,
जहाँ सबकुछ जड़ है, गतिहीन पाषाण है।
साँसें कभी सम, कभी मध्यम,
कभी बहुत ही गहरी,
हर रूप में लय से भरी,
प्राण की सहचरी;
कोई आमंत्रण नहीं, तिरस्कार नहीं,
अनवरत चलती, कभी थकती एकबार नहीं,
जीवन की पहली लय,
जीवन के आखिरी छंद;
साँसें एकसूत्रता के परिचायक,
समता के वाहक और स्वच्छंद।
पलकें उठी हों तो दूर तक दिखाई देता है,
पर ऐसे में सिर्फ देखना होता है,
जैसे सब कुछ समेट लेना अपने अंदर;
कोई वाद नहीं, विवाद नहीं,
कोई तर्क नहीं,
बस एक सुख है निहारना, वर्तमान को जी भर;
झुकी हों, तो कम दिखता है,
पर देखने से अधिक कहती हैं;
जैसे एक जुड़ाव हो,
हर देखने में एक भाव हो,
भावनाएँ जो कहीं पहुँचे ना पहुँचे,
आँखों से बहती हैं,
पलकें जब बंद होती हैं,
सब कुछ समेट लेती हैं,
कुछ भी कहीं बदलता नहीं,
कुछ भी रुकता या चलता नहीं,
निस्पृह संवेदना,
कि सारी सृष्टि को यूँ हीं छोड़ देती हैं,
फिर भी सहजता से उसे हमसे जोड़ देती हैं।