
सारी बाधाओं को पार कर,
मन को असंख्य दुविधाओं से उबार कर,
कदम दर कदम चढते ऊपर,
सामर्थ्य की अंतिम सीमाओं का स्पर्श कर,
बार-बार मन में आ कौंधती विरक्ति से संघर्ष कर,
शिखर पर खड़े हो कर,
जैसे ही जीवन सार्थक लगने लगता है,
और धन्यता का भाव चित्त में जगने लगता है,
एक अमूर्त जिज्ञासा सर उठाती है,
क्षण भर में सम्पूर्ण अस्तित्व को है झकझोर जाती है,
क्या यही है हासिल,
बस इतना ही?
हवा यहाँ निर्मल है,
पर थोड़ी विरल है,
उनमें शीतलता तो है,
पर साँसों में लगता अधिक बल है।
क्या गणणा कहीं छली गयी है?
चित्त की सहजता कहीं चली गयी है।
क्या और मूल्य चुकाना बाकी है अभी?
या बस इतना ही।
दृश्य मनोरम, स्वच्छ, धवल है,
हृदय धन्य है, पर तनिक विकल है,
क्या यह नियति का उपहास मुखर है,
कि जो कुछ भी दिखता सुन्दर है,
या तो छूट गया नीचे है
या फिर दिखता बहुत ऊपर है।
हासिल क्या, दूर है दिखती अपनी घाटी?
बस इतना ही।
चांद यहाँ से भी है दिखता,
पहले सा ही मगरूर,
और आकाश अभी भी है उतना ही दूर,
पास क्या है,
एक निजी कहानी और बहुत सारा अकेलापन है,
तीखी ढलानें हैं, गति पर बंधन है,
सिर्फ दिल में ही नहीं,
कदमों में भी एक कमजोरी-सी जगी है,
बहुत गहराई से अपनों की दुआ-बंदगी याद आने लगी है,
भ्रम में हूँ, क्या ऐसी नियति थी चाही?
बस इतना ही।
खड़े होकर उस तुंग शिखर पर,
चारों ओर फैलाते नजर,
सारा मान तिरोहित हो जाता है,
अब तक का सारा ज्ञान तिरोहित हो जाता है,
जहाँ तक आँखें देख पाती हैं,
अनगिनत शिखरों का समूह नजर आता है,
यह तो बस एक है,
ऐसे कितने ही शिखर और भी हैं,
जिसे आखिरी कह सकें,
ऐसा शिखर कोई नहीं है।
लघुता की यह टीस फिर कभी छूट नहीं पाती।
बस इतना ही।
कर संधान शिखर,
वहीं का होकर,
बीते की दीप्ति में चमकना यदि उद्देश्य न हो,
तो कदम थमे नहीं रह सकते,
मन मान न सकता किसी भी बंधन को,
यहाँ बहुत हैं क्षद्म, विपर्यय,
अद्भुत-सा एक छलना है,
यहाँ से आगे चलने का मतलब,
सिर्फ नीचे उतरना है।
अर्थ बहुत ही व्यापक है, है हार जीत की जायी।
बस इतना ही।