
बसे भाव बहुतेरे मन में,
कुछ चिन्हित कुछ स्मरण में,
गोपियों का निर्बाध हो नर्तन,
ज्यों बीच रात में वृंदावन में।
थोड़े-से अज्ञान-बोध के,
स्वीकार ‘बहुत कुछ ज्ञात नहीं है’,
पर इसमें जो तंद्रिल भावुकता,
क्या प्रेम पगा सौगात नहीं है?
कुछ सखा भाव भी मन में अद्भुत,
मार हिलोरें रहते हैं,
सारी दुनियाँ मुझ सा ही सम,
हो परे न कोई कहते हैं।
वय:संधि के भाव विलक्षण,
मन छाते हर क्षण रंग नये,
प्रत्यक्ष खोता अर्थ निरंतर,
जगते रंग स्वप्निल जग के।
एक भाव मात्र सृजन को माने,
तज बंध सकल बस रचने दे।
‘लहर प्राण की कम न होगी,
यदि गढा न कुछ रुधिर दे के।‘
भाव अलग जीवन दर्शन के,
क्यों हम, क्यों यह सृष्टि बनी,
हम हैं कठपुतली इस जग के,
या इसके उद्देश्य हैं हम ही?
यदि मानव शीर्ष कड़ी विकास का,
क्या नहीं उस पर अन्याय हुआ?
कि जिये, रचे और वरे मृत्यु को,
जैसे मात्र अंतिम अध्याय हुआ।
भाव कभी अंतिम नहीं होते,
कभी कहीं नहीं रुकता मन।
आवर्ती आशा और निराशा,
जिज्ञासा इस प्रवाह का ईंधन।
भाव अर्थ, गति, ऊर्जा, गुंजन,
शिखर और आधार जीवन के,
हर्ष, विषाद, लालित्य, मधुरिमा,
और स्पंदन क्षण-क्षण के।
हर पीड़ा, हर अभिनंदन में,
हर जड़ता, हर स्पंदन में।
गोपियों का निर्बाध हो नर्तन,
जैसे बीच रात में वृंदावन में।